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सम्यक्त्वविषयभूतस्य जीवतत्त्वस्य प्ररूपणा गतपुदलानामौदारिकादिप्रकारेण ग्रहणम् । उपार्धपुद्गलपरावर्तस्तु किंचिन्यूनोऽर्धपुद्गलपरावर्त इति ॥७२॥ एतदद्वारोपयोग्ये च वक्तव्यताशेषमाह
पायमिह कूरकम्मा भवसिद्धिया वि दाहिणिल्लेसु ।
नेरइय-तिरिय-मणुया सुरा य ठाणेसु गच्छंति ॥७३।। प्राय इह क्रूरकर्माणः, बाहुल्येनैतदेवमिति दर्शनार्थ प्रायोग्रहणम् । भवसिद्धिका अप्येकभवमोक्षयायिनोऽपि । दक्षिणेषु नारकतिर्यङ्मनुष्याः सुराश्च स्थानेषु गच्छन्ति । अत एवोक्तम्"दाहिणदिशिगामिए किल्पक्खिए नेरइए" इत्यादि । एतदुक्तं भवति-नरक-भवन-द्वीप-समुद्रविमानेषु दक्षिणदिग्भागव्यवस्थितेषु कृष्णपाक्षिका नारकादय उत्पद्यन्त इति । आह-भारतादितीर्थकरादिभिर्व्यभिचारः ? न, तेषां प्रायोग्रहणेन व्युदासादिति ॥७३॥ शुक्लपाक्षिकद्वारानन्तरं सोपक्रमायुारमाह
देवा नेरइया वा असंखवासाउआ य तिरि-मणुया । उत्तमपुरिसा' य तहा चरमसरीरा य निरुवकमा ।।७४॥
क्षयको प्राप्त होनेवाला है उनका नाम शुक्लपाक्षिक है। ऐसे शुक्लपाक्षिक जीव, चाहे सम्यग्दर्शनको प्राप्त कर चुके हैं अथवा उसे न भी प्राप्त किया हो, अधिकसे अधिक कुछ कम अर्धपुद्गलपरावर्तकाल तक हो संसारमें रहते हैं, तत्पश्चात् वे नियमसे मुक्तिको प्राप्त कर लेते हैं। इनके विपरीत जो अतिशय क्रूर कर्म करनेवाले जीव हैं उन्हें कृष्णपाक्षिक कहा जाता है। उनके संसारपरिभ्रमणका काल अर्धपुद्गलपरावतंसे अधिक होता है ।।७२।।
आगे कृष्णपाक्षिक जीवोंके उत्पत्तिस्थानका निर्देश किया जाता है
भवसिद्धिक होते हुए भी जो नारक, तियंच, मनुष्य और देव प्रायः क्रूर कर्म करनेवाले होते हैं वे दक्षिण स्थानोंमें जाते हैं ।
विवेचन-इसका अभिप्राय यह है कि प्रायः क्रूर कर्म करनेवाले नारक, तियंच, मनुष्य और देवोंमें यदि एक भवमें मोक्षगामो भी हों तो भी वे दक्षिण दिशाभागमें अवस्थित नारकबिलों, भवनवासी देवोंके भवनों, द्वोपों, समुद्रों और विमानोंमें उत्पन्न हुआ करते हैं। यहां यह शंका हो सकती थी कि द्वीपके दक्षिण दिशागत भरत क्षेत्रादिमें तो तोर्थंकर आदि भी उत्पन्न होते हैं, पर वे क्रूर कर्म करनेवाले नहीं होते; अतः यह कहना ठीक नहीं है कि दक्षिण दिशागत स्थानोंमें क्रूर कर्म करनेवाले जीव उत्पन्न होते हैं। इस शंकाको लक्ष्यमें रखते हुए गाथामें 'प्रायः' शब्दको ग्रहण किया गया है। उसका अभिप्राय है कि अधिकांशमें क्रूर कर्म करनेवाले जीव उन स्थानोंमें उत्पन्न होते हैं । इससे प्रकृतमें उत्तम प्रवृत्ति करनेवाले उन तीर्थंकरों आदिकी व्यावृत्ति हो जाती है ॥७३॥
अब क्रमप्राप्त सोपक्रमायु द्वारका निरूपण करते हुए निरुपक्रम कौन होते हैं, इसका निर्देश करते हैं
देव, नारक, असंख्यातवर्षायुष्क तिर्यंच व मनुष्य, उत्तम पुरुष और चरमशरीरी ये सब जोव निरुपक्रमायुष्क होते हैं।
१. मु पुरिहा।