________________
विषय-सूची १२३-१३२ उपर्युक्त पूर्वपक्ष का निराकरण। १३३-१६३ पाप के कारण संसार में परिभ्रमण करनेवाले दुखी जीवों के वध की निवृत्ति कराना उचित
नहीं है, किन्तु सुखी जीवों के ही वध की निवृत्ति कराना उचित है, इस संसारमोचकों के मत
का अनेक शंका-समाधानपूर्वक निराकरण। १६४-१७५ कुछ वादी आगन्तुक दोषों की सम्भावना से-जैसे हिंस्र सिंहादि के वध की निवृत्ति से उनके
द्वारा किसी युगप्रधान के भक्षित होने पर उसके अभाव में होनेवाली तीर्थहानि की सम्भावना से-प्राणिवध की निवृत्ति को पापजनक मानते हैं, उन अभिमत को प्रकट करते हुए उसका
निराकरण। १७६-१९१ जीव के नित्य-अनित्य व शरीर से भिन्न-अभिन्न पक्षों में वध की निवृत्ति को निर्विषय
बतलानेवाले कितने वादियों के अभिमत का अनेक शंका-समाधानपूर्वक निराकरण। १९२-२०८ अकालमरण के असम्भव होने से प्राणिवध की निवृत्ति को वन्ध्यापुत्र के मांसभक्षण की
निवृत्ति के समान निरर्थक ठहरानेवालों के अभिप्राय को दिखलाते उसका निराकरण। २०९-२२० अन्य कितने ही वादियों का कहना है कि जिसने जो कर्म किया है उसे उसका फल सहकारी
कारणों की अपेक्षा करके अवश्य भोगना पड़ेगा, इस प्रकार उसके वध में निमित्त होनेवाले वधक का कोई दोष नहीं है, अपराध उसी वध्य प्राणी का है जिसने उसके निमित्त से मरने का वैसा कर्म किया है, इसीलिए वध-निवृत्ति का कुछ फल सम्भव नहीं है। इन वादियों के
अभिप्राय को स्पष्ट करते हुए उसका निराकरण। २२१-२३४ कुछ वादियों का अभिमत है कि बाल व कुमार आदि के वध में अधिक कर्म का उपक्र
से पाप अधिक और वृद्ध आदि के वध में कर्म का अल्प उपक्रम होने से पाप अल्प होता है,
उनके इस अभिमत को स्पष्ट करते हुए उसका निराकरण । २३५-२५५ अन्य कुछ का कहना है कि कृमि-पिपीलिका आदि प्राणियों का वध सम्भव है. उनके वध की
निवृत्ति कराना उचित है, किन्तु नारक आदि का वध असम्भव है, उनके वध की निवृत्ति का
कुछ फल सम्भव नहीं है, उनके अभिमत को प्रकट करते हुए उसका निराकरण। २५६ इस प्रकार मिथ्यादर्शन के वशीभूत होकर कितने ही वादी जो अयुक्तिसंगत मत व्यक्त करते
हैं उसे निःसार समझ लेने की प्रेरणा। २५७-२५९ व्रत को स्वीकार करके व उसके अतिचारों को जानकर उनके परिहार की प्रेरणा करते हुए
प्रथम अहिंसाणुव्रत के अतिचारों के निर्देशपर्वक त्रसरक्षा के उपायों का दिग्दर्शन। २६०-२६४ द्वितीय अणुव्रत का स्वरूप और उसके अतिचार । २६५-२६९ तृतीय अणुव्रत का स्वरूप और उसके अतिचार। २७०-२७४ चतुर्थ अणुव्रत का स्वरूप और उसके अतिचार। २७५-२७९ पाँचवें अणुव्रत का स्वरूप और उसके अतिचार। २८०-२८३ प्रथम गुणव्रत का स्वरूप, उससे होनेवाला लाभ और उसके अतिचार।
२८४ द्वितीय गुणव्रत का स्वरूप। २८५-२८६ द्वितीय गुणव्रत के दो भेदों का उल्लेख करते उसके अतिचारों का निर्देश। २८७-२८८ कर्माश्रित उपभोग-परिभोगपरिमाण के प्रसंग में अंगार कर्म आदि १५ अतिचारों का निर्देश। २८९-२९१ तृतीय गुणव्रत का स्वरूप और उसके अतिचार।