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सम्यक्त्वप्रसंगे कर्मप्ररूपणा एताः सामान्यप्रकृतये इत्यर्थः । उत्तरप्रकृतीरेतद्विशेषरूपा । अतो वक्ष्ये अत ऊध्वर्मभिधास्य इति । क्रमप्रयोजनं प्रथमगुणघातादि, यथा कर्मप्रकृति संग्रहण्यामुक्तं तथैव द्रष्टव्यम्, ग्रन्यविस्तरभयाद्वस्तुतोऽप्रक्रान्तत्वाच्च न लिखितमिति ॥११।। तथा
पढमं पंचवियप्पं मइसुयओहिमणकेवलावरणं ।
बीयं च नववियप्पं निदापण दंसणचउक्कं ॥१२।। इह सूत्रक्रमप्रामाण्यात्प्रथममाद्यं ज्ञानावरणम् । पञ्चविकल्पमिति पञ्चभेदम् । तानेव भेदानाह-मति-श्रतावधि-मनःकेवलावरणम, मतिज्ञानाद्यावरणमित्यर्थः। द्वितीयं च दर्शनावरणं नवविकल्पं निद्रापञ्चकं दर्शनचतुष्कं चेति ॥१२॥ निद्रापञ्चकमाह--
निद्दा निद्दानिद्दा पयला तह होइ पयलपयला य ।
थीणड्ढी औं सुरुद्दा निद्दापणगं जिणाभिहियं ॥१३॥ नाम गोत्र है और उस रूपसे जिस कर्मका वेदन किया जाता है उसका नाम गोत्रकर्म है । दानादिविषयक विघ्नका नाम अन्तराय है, इस अन्तरायके कारणभूत कर्मको भी अन्तराय कहा जाता है। अथवा 'अन्तरा एति अन्तरायः' इस निरुक्ति के अनुसार जो जीव और दानादिके मध्य में अन्तरा अर्थात् व्यवधान रूपसे उपस्थित होता है उसे अन्तराय कर्म जानना चाहिए । यहाँ ज्ञानावरणादिका जो क्रम रहा है उसका प्रयोजन प्रथम गुणके घात आदिका रहा है। इसकी टोकामें हरिभद्र सूरिने यह सूचना कर दी है कि कर्मविषयक व्याख्यान कर्मप्रकृति संग्रहणी ग्रन्थमें विस्तारसे किया गया है, अतः विशेष जिज्ञासुओंको उसे वहां देख लेना चाहिए। संक्षिप्त ग्रन्थ होनेसे यहां उसकी विस्तारसे चर्चा नहीं की गयी है। दूसरी बात यह भी है कि प्रस्तुत ग्रन्थ श्रावकाचारकी विशेष रूपसे प्ररूपणा करनेवाला है, इससे यहां कर्मकी विस्तृत प्ररूपणा प्रकरणसंगत भी नहीं है।।८-११॥
आगेकी गाथामें ज्ञानावरणके पांच भेदोंको दिखलाते हुए. दूसरे दर्शनावरणके नौ भेदोंका निर्देश किया जाता है
उपर्युक्त आठ कर्मों में प्रथम ज्ञानावरण पाँच प्रकारका है-मतिज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण, अवधिज्ञानावरण, मनःपर्ययज्ञानावरण और केवलज्ञानावरण । "दूसरे दर्शनावरणके नौ भेदोंमें पांच निद्रा और चार दर्शन हैं।
विवेचन-पांच इन्द्रियों और मनके आश्रयसे जो ज्ञान उत्पन्न होता है उनका नाम मतिज्ञान और जो उसका आवरण करता है उसका नाम मतिज्ञानावरण है । मतिज्ञानसे जाने हुए पदार्थक विषयमें जो विशेष ज्ञान होता है उसे श्रुतज्ञान और इसका जो आवरण करता है उसे श्रुतज्ञानावरण कहते हैं । इन्द्रिय और मनको अपेक्षा न करके द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी मर्यादा लिये हुए जो रूपी पदार्थविषयक ज्ञान होता है उसे अवधिज्ञान और उसके आवारक कर्मको अवधिज्ञानावरण कहा जाता है। इन्द्रिय व मनकी अपेक्षा न करके जो दूसरेके मनोगत भावका बोध होता है उसे मनःपर्ययज्ञान और उसके आवारक कर्मको मनःपर्ययज्ञानावरण कहते हैं। तीनों काल और तीनों लोक सम्बन्धी समस्त पदार्थों का जो अतीन्द्रिय व स्पष्ट बोध होता है उसका नाम केवलज्ञान और उसके आवारक कर्मका नाम केवलज्ञानावरण है ।।१२।।
अब पूर्व गाथामें निर्दिष्ट पांच निद्राओंके नामोंका निर्देश किया जाता है१. अ सामान्यविशेषप्रकृतय । २. अ णव । ३. अनिद्दा ३ पयला। ४. अ य सुरोद्धा। ..