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श्रावकप्रज्ञप्तिः
[२३ - पत्तेयं साहारण-थिरमथिरसुहासुहं च नायां ।
सुभगभगनामं सूसर तह दूसरं चेव ॥२३॥ प्रत्येकनाम यदुदयादेको जीव एकमेव शरीरं निवर्तयति । साधारणनाम यदुदयाद् बहवो जीवा एकं शरीरं निवर्तयन्ति । स्थिरनाम यदयाच्छरीरावयवानां शिरोऽस्थि-दन्तादीनां स्थिरता भवति । अस्थिरनाम यदुदयात्तदवयवानामेव चलता भवति कर्णजिह्वाहीनाम् । शुभाशुभं च ज्ञातव्यम्-तत्र शुभनाम यदुदयाच्छरीरावयवानां शुभता, यथा शिरसः। विपरीतमशुभनाम, यथा पादयोः । तथा शिरसा स्पृष्टस्तुष्यति, पादाहतस्तु रुष्यति । कामिनीव्यवहारे व्यभिचार इति चेत् न, तस्य मोहनीयनिबन्धनत्वात्, वस्तुस्थितिश्चेह चिन्त्यत इति । सुभगनाम यदुदयात्काम्यो भवांत । तद्विपरीतं च दुर्भगनामेति । सुस्वरनाम यदुदयात्सोस्वयं भवति श्रोतुः प्रीतिहेतुः। तथा दुःस्वरं चैवेति सुस्वरनामोक्तविपरीतमिति ॥२३॥
आइज्जमणाइज्ड जसकित्तीनाममजसकित्ती य ।
निम्माणनाममउलं चरमं तित्थयरनामं च ॥२४॥ आदेयनाम यदुदयादादेयो भवति-यच्चेष्टते भाषते वा तत्सर्व लोकः प्रमाणीकरोति ।
२७ प्रत्यक, २८ साधारण, २९ स्थिर, ३० अस्थिर, २१ शुभ, ३२ अशुभ, ३३ सुभग, ३४ दुर्भग, ३५ सुस्वर ओर ३६ दुःस्वर जानना चाहिए। इस प्रकार यहाँ तक प्रकृत नाम कमके ३६ भेद हो जाते हैं।
विवेचन-इनका पथक स्वरूप इस प्रकार है-जिसके उदयसे एक जीव एक हो शरीरकी रचना करता है उसे प्रत्येक नामकर्म कहते हैं। जिसके उदयसे बहुतसे जोव एक शरीरको रचना करते हैं उसे साधारण नामकर्म कहा जाता है । जिसके उदयसे शरीरके अवयवभूत सिर, हड्डी और दांत आदिकी स्थिरता होती है उसे स्थिर नामकर्म तथा जिसके उदयसे उस शरीरके कान और जीभ आदि अवयवोंकी ही अस्थिरता या चंचलता होती है उसे अस्थिर नामकर्म कहा जाता है। जिसके उदयसे शरीरगत अवयवोंकी उत्तमता, जैसे शिरकी उत्तमता होती है वह शुभ नामकर्म और इसके विपरीत जिसके उदयसे उन अवयवाम-जैस पांवों में-हीनता होती है वह अशुभ नामकर्म कहलाता है। लोकव्यवहारमें यह देखा भी जाता है कि यदि किसीका सिरसे स्पर्श किया जाता है तो वह प्रसन्न होता है तथा इसके विपरीत यदि किसीको पावसे ताड़ित किया जाता है तो वह रुष्ट हाता है। जिसके उदयस प्राणी दूसरोके द्वारा अभिलषनीय या प्रशंसनीय होता है उसे सुभग और इसके विपरीत जिसके उदयसे वह दूसरोंके द्वारा अनभिलषनीय या निन्दनीय
नामकर्म कहते है। जिसके उदयस प्राणाका सुन्दर स्वर श्रोताको प्रीतिका कारण होता है वह सुस्वर ओर इसक विपरीत जिसके उदयसे उसका स्वर श्रोताको अप्रीतिकर होता है वह दुःस्वर नामकर्म कहलाता है ।।२३।।
अब प्रकृत नामकर्म के शेष रहे आदेय आदि छह भेदोंका निर्देश किया जाता है
३७ आदेय, ३८ अनादेय, ३९ यशःकोति, ४० अयशःकीर्ति, ४१ निर्माण और ४२ अन्तिम अनुपम तीर्थंकर नामकर्म । इस प्रकार उस नामकर्मके गा. २०-२४ में निर्दिष्ट ४२ भेद हो जाते हैं।
विवेचन-जिसके उदय से प्राणो दूसरोंके लिए ग्राह्य होता है उसे आदेय नारकर्म कहा
१. अ आयज्जमणाएज्ज । २. अमजस कित्तं च। ३. अ प्रमाणं करोति ।