________________
४०
श्रावकप्रज्ञप्तिः
२९२ प्रथम सामायिक शिक्षाव्रत का स्वरूप। २९३-२९४ सामायिक में अधिष्ठित श्रावक की साधुता के विषय में शंका व उसका समाधान। २९५-३११ दो प्रकार की शिक्षा, गाथा, उपपात, स्थिति, गति, कषाय, बन्ध, वेदना, प्रतिप
अतिक्रम इन दस द्वारों के आश्रय से क्रमशः साधु और श्रावक के मध्यगत भेद का
प्रदर्शन। ३१२-३१७ सामायिक के पाँच अतिचारों का स्वरूप। ३१८-३२०. द्वितीय देशावकाशिक शिक्षाव्रत का स्वरूप व उसके अतिचार। . ३२१-३२२ तृतीय शिक्षाव्रत का स्वरूप व उसके आहारपौषध आदि चार भेदों में प्रत्येक के देश व सर्व ।
की अपेक्षा दो भेदों का निर्देश करते हुए उनमें सामायिक के करने व न करने की विशेषता। ३२३-३२४ तृतीय शिक्षाव्रत के अतिचार।। ३२५-३२७ अन्तिम (चतुथ) शिक्षाव्रत का स्वरूप व उसके अतिचार ।
३२८ उक्त अणुव्रतादि में यावत्कथिक कौन और इत्वर कौन, इसका निर्देश। ३२९-३३१ श्रावकधर्म में १४७ प्रत्याख्यान भेदों का निर्देश।
३३२ उक्त प्रत्याख्यान भेदों में श्रावक की अनुमति के विषय में शंका और उसका समाधान। ३३३-३३५ इस प्रसंग में मतान्तर का उल्लेख व उससे सम्बद्ध अन्य शंका-समाधान। ३३६-३३८ मन से करने, कराने व अनुमति के विषय में शंका और उसका समाधान। - ३३९-३४२ श्रावक कैसे स्थान में निवास करे, उसकी विशेषता को प्रकट करते हुए उससे होनेवाले लाभ
' का दिग्दर्शन। ३४३-३४४ श्रावक सोते से उठते हुए क्या करे। ३४५-३५० चैत्यपूजा में होनेवाले कुछ प्राणिवध से तथा उससे पूज्यों का कुछ उपकार भी न होने से
उसका निषेध करनेवालों की आशंका का समाधान। ३५१ धर्म गुरुसाक्षिक होता है, इसीलिए पूर्व में स्वयं ग्रहण किये गये प्रत्याख्यान के गुरुसाक्षी में
पुनः ग्रहण करने की प्रेरणा। ३५२-३६४ साधु के समीप में धर्म को सुनकर तत्पश्चात् श्रावक क्या करे। ३६४-३७५ विहारकालीन विधि।
३७६ अन्य आभिग्रहों के साथ प्रतिमादिकों की विधेयता। ३७७ चारित्रमोह के उदयवश दीक्षा के अभाव में मरणकाल के उपस्थित होने पर विधिपूर्वक
मारणान्तिक संलेखना के आराधन का विधान। ३७८-३८१ संलेखना का आराधक श्रावक जब समस्त आरम्भ आदि क्रियाओं को छोड़ देता है, तब वह
दीक्षा को ही क्यों नहीं स्वीकार करता, इस शंका का समाधान। ३८२-३८४ कितने ही आगम से अनभिज्ञ यह कहते हैं कि संलेखना को चूँकि बारह प्रकार का गृहस्थधर्म
नहीं कहा गया, इससे उसमें यति को अधिकृत समझना चाहिए, न कि गृहस्थ को इस
अभिप्राय का निराकरण। ३८५ संलेखना के अतिचारों का निर्देश करते हुए संसारपरिणाम के चिन्तन की प्रेरणा। ३८६-४०० जन्मपरिणामादिरूप संसारपरिणाम का चिन्तन किस प्रकार करे, इसे स्पष्ट करते हुए उससे
होनेवाले लाभ का दिग्दर्शन। ४०१ ग्रन्थकार द्वारा अपनी निरभिमानता का प्रकट करना।
00