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श्रावकप्रज्ञप्तिः
गाथाएँ उसकी तथा कुछ अन्य पंचाशकों की श्रा. प्र. में जैसी की तैसी पायी जाती हैं। इनमें पूर्वार्ध-उत्तरार्ध से मिलकर भी कोई गाथा बन गयी है, किसी-किसी में एक-आध चरण भिन्न है अथवा कुछ शब्दपरिवर्तन ही है। यहाँ ऐसी कुछ गाथाओं के अंक दिये जा रहे हैं जो दोनों ग्रन्थों में समानरूप से उपलब्ध होती हैं। इनमें पंचाशक के गाथांक साधारण रूप से तथा श्रा. प्र. के गाथांक कोष्ठक में दिये जा रहे हैं
७ (१०६). ८ (१०७). ६ (१०८). १० (२५८), ११ (२६०), १२ (२६३). १३ (२६५-६६), १४ (२६२), १६ (२७३), २३ (२८९). २४ (२९३), २५ (२९२). २६ (३१२). २७ (३१८). २८ (३२०), २९ (३२१-२२). ३२ (३२७). ३९ (३२८), ४० (३७८). ४१ (३३९). ४२ (३४३).५० (३४४ व ३६४). १८५ (३४५) १८८ (३४८), १८९ (३४९), १९० (३५०), ४५६ (२९९). ४५९ (३२१), ४६० (३२३)।
यहाँ यह स्मरणीय है कि पंचाशक में केवल 50 गाथाओं द्वारा श्रावकधर्म की प्ररूपणा की गयी है, जब कि श्रा. प्र. में ४०१ गाथाओं के द्वारा उसकी प्ररूपणा की गयी है।
(१६) श्रावकप्रज्ञप्ति और समराइच्चकहा
हरिभद्र सूरि के द्वारा विरचित समराइच्चकहा यह एक प्रसिद्ध पौराणिक कथाग्रन्थ है। इसमें उज्जैन के राजा समरादित्य के नौ पूर्व भवों के चरित्र का चित्रण बड़ी कुशलता से ललित भाषा में किया गया है। राजा समरादित्य का जीव प्रथम भव में क्षितिप्रविष्ट नगर में पूर्णचन्द्रके राजाके यहाँ गुणेसन नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ था। उसी नगर में एक यज्ञदत्त नाम का पुरोहित रहता था। उसके एक अग्निशर्मा नाम का कुरूप पुत्र था। उसे गुणसेन कौतूहलवश नचाता व गधे पर बैठाकर वादित्रों की मधुर ध्वनि के साथ राजमार्ग में घुमाया करता था। इससे पीड़ित होकर अग्निशर्मा ने आर्जव कौण्डिन्य नामक तापस कुलपति के आश्रम में जाकर तापस दीक्षा ले ली। आगे चलकर उत्तरोत्तर कुछ ऐसी ही अनपेक्षित घटनाएँ घटती गयीं कि जिससे वह अग्निशर्मा आगे के भवों में गुणसेन का महान शत्रु हुआ। उसने उस समय क्षुधापरीषह से पीड़ित होकर यह निदान किया कि यदि इस तप का कुछ फल हो सकता है तो उसके प्रभाव से मैं प्रत्येक जन्म में गुणसेन का वध करूँगा।
एक दिन क्षितिप्रविष्ट नगर में विजयसेन नामक आचार्य का शुभागमन हुआ। इस शुभ समाचार को जानकर गुणसेन राजा उनकी वन्दना के लिए गया। वन्दना के पश्चात् उसने विजयसेनाचार्य की रूपसम्पदा को देखकर उनके विरक्त होने का कारण पूछा। तदनुसार उन्होंने अपने विरक्त होने की घटना उसे कह सुनायी। उसका प्रभाव गुणसेन के हृदय-पटल पर अंकित हुआ। तब उसने उनसे शाश्वत स्थान और उसके साधक उपाय के सम्बन्ध में प्रश्न किया। उत्तर में उन्होंने परमपद को शाश्वत स्थान बतलाकर उसका साधक उपाय सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्रस्वरूप धर्म को बतलाया। इस धर्म का उन्होंने गृहिधर्म और साधुधर्म के भेद से दो प्रकार का बतलाकर उसकी मूल वस्तु सम्यक्त्व निर्दिष्ट किया। साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि वह सम्यक्त्व अनादि कर्मसन्तान से वेष्ठित प्राणी के लिए दुर्लभ होता है। इस प्रसंग में उन्होंने ज्ञानावरणादि आठ कर्मों व उनकी उत्कृष्ट एवं जघन्य स्थिति का भी निर्देश किया। उक्त कर्मस्थिति के क्रमशः क्षीण होने पर जब वह एक कोड़ाकोड़ी मात्र शेष रहकर उसमें भी स्तोक मात्र-पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण-और भी क्षीण हो जाती है तब कहीं जीव को उस सम्यक्त्व की प्राप्ति हुआ करती है। इस प्रसंग में जो वहाँ गद्यभाग उपलब्ध होता है उसकी तुलना श्रा. प्र. की गाथाओं से की जा सकती है। दोनों में शब्दशः समानता है
एयस्स उण दुविहस्स वि धम्मस्स मूलवत्थु सम्मत्तं। (स. क., पृ. ४३) एयस्स मूलवत्थू सम्मत्तं तं च गंठिभेयम्मि। (श्रा. प्र. ७)