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श्रावकप्रज्ञप्तिः
लगभग वैसे ही शब्दों में उसका स्पष्टीकरण सा. ध. की इस स्वो. टीका में भी इस प्रकार से किया गया है-त्रिकालविषयता चातीतस्य निन्दया साम्रतिकस्य संवरणेनानागतस्य च प्रत्याख्यानेनेति।
६. श्रा. प्र. गा. ३४३-४४ में श्रावक की दिनचर्या को दिखलाते हुए कहा गया है कि प्रातःसमय में नमस्कार मन्त्र के उच्चारण के साथ शय्या से उठकर 'मैं श्रावक हूँ' ऐसा स्मरण करते हुए व्रतादि में योग देना चाहिए व विधिपूर्वक चैत्यवन्दन करके प्रत्याख्यान ग्रहण करना चाहिए। इस प्रकार प्रातःकालीन कृत्य को स्वयं घर पर करके तत्पश्चात् चैत्यों की पूजा आदि करे और तब साधु के समीप में उस प्रत्याख्यान को प्रकाशित करे जिसे पूर्व में स्वयं ग्रहण किया था।
लगभग यही अभिप्राय सा. धा. (६, १-११) में भी कुछ विस्तार से प्रकट किया गया है। उसका प्रथम श्लोक यह है
ब्राझे मुहूर्त उत्थाय वृत्तपंचनमस्कृतिः।
कोऽहं को मम धर्मः किं व्रतं चेति परामृशेत् ॥ वैसे इस प्रसंग में श्रावकप्रज्ञप्ति की अपेक्षा योगशास्त्र (३-१२२) का अनुसरण सा. ध. में अधिक किया गया प्रतीत होता है।
७. श्रा. प्र. (२८५) में उपभोग-परिभोग-परिमाणव्रत के भोजन व कर्म की अपेक्षा दो भेदों का निर्देश करके आगे की दो गाथाओं (२८७-८८) में कर्म के आश्रय से अंगारादि १५ निषिद्ध कर्मों के परित्याग की प्रेरणा की गयी है।
इस प्रसंग में सा. ध. (५, २१-२३) में किन्हीं श्वे. आचार्यों के अभिमतानुसार खरकर्म-प्राणिविघातक क्रूर कर्म-के व्रत का उल्लेख करते हुए वनजीविका व अग्निजीविका आदि उन १५ मलों (अतिचारों) के छोड़ने की प्रेरणा की गयी है व आगे इसी प्रसंग में यह कहा गया है कि ऐसा कितने ही श्वे. आचार्य कहते हैं। पर वह ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसे सावद्यकर्म अगणित हैं, अर्थात् उनकी कोई सीमा न होने से उक्त १५ कर्मों का ही निषेध करना उचित नहीं है। फिर आगे विकल्परूप में यह भी कह दिया है कि अथवा अतिशय जड़बुद्धियों को लक्ष्य करके उनका प्रतिपादन करना भी उचित है।
इसका आधार सम्भवतः श्रा. प्र. का उपर्युक्त प्रसंग रहा है। कारण यह कि वहाँ उपभोगपरिभोगपरिमाणव्रत के प्रसंग में कर्म की अपेक्षा उन पन्द्रह कर्मों का उल्लेख करते हुए उन्हें हेय कहा गया है। वहाँ गा. २८८ की टीका में 'भावार्थस्तु वृद्धसम्प्रदायादेव अवसेयः, स चायम्' इस प्रकार की सूचना करते हुए सम्भवतः आवश्यकचूर्णि द्वारा उन कर्मों के स्वरूप को स्पष्ट किया गया है। पूर्वोक्त सा. ध. की टीका में भी उनका स्वरूप लगभग उसी प्रकार निर्दिष्ट किया गया है। अन्त में श्रा. प्र. की उक्त टीका में यह भी कहा गया है कि इस प्रकार के सावध कर्मों का यह प्रदर्शन मात्र है-इसे उनकी सीमा नहीं समझना चाहिए, क्योंकि इस प्रकार के बहत-से सावध कर्म हेय हैं, जिनकी गणना नहीं की जा सकती है।
सा. ध. की स्वो. टीका में जो विकल्प रूप में उक्त अभिप्राय प्रकट किया गया है वह श्रा. प्र. के टीकागत उस अभिप्राय से सर्वथा मिलता हुआ है।
८. बारह व्रतों, दिनचर्या और विहारादिविषयक सामाचारी के निरूपण के पश्चात् श्रा. प्र. (३७८-८५) में एक शंका-समाधान के साथ अन्तिम अनुष्ठानस्वरूप संलेखना की भी प्ररूपणा की गयी है।
___ यह संलेखना या सल्लेखना की प्ररूपणा सा. ध. के अन्तिम 8वें अध्याय में बहुत विस्तार से की गयी है। पूर्वसूचित श्रावक के तीन भेदों में अन्तिम भेदभूत साधक श्रावक के लिए उसका वहाँ विधान किया गया है।