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प्रस्तावना
७. टीका और टीकाकार हरिभद्र सूरि
प्रस्तुत श्रावकप्रज्ञप्ति के ऊपर हरिभद्र सूरि के द्वारा एक संक्षिप्त टीका लिखी गयी है जो प्रस्तुत संस्करण में मूल ग्रन्थ के साथ प्रकाशित की जा रही है। जैसा कि टीका का 'दिक्प्रदा' यह नाम है, तदनुसार वह दिशा का बोधमात्र कराती है। उसमें प्रायः व्याख्येय तत्त्व का विशेष स्पष्टीकरण न करके गाथागत पदवाक्यों को उद्धृत करते हुए शब्दार्थमात्र किया गया है। अभिध्येय का अभिप्राय उसमें बहुत कम प्रकट किया गया है। उदाहरणार्थ, इस गाथा की टीका को देखिए
तं जाविह संपत्ती न जुज्जए तस्स निग्गुणत्तणओ।
बहुतरबंधाओ खलु सुत्तविरोहा जओ भणियं ॥ ३४ ॥ टीका-तं ग्रन्थिम्, यावदिह विचारे, संप्राप्तिर्न युज्यते न घटते, कुतः? तस्य निर्गुणत्वात्-तस्य जीवस्य सम्यग्दर्शनादिगुणरहितत्वात्, निर्गुणस्य च बहुतरबन्धात्, खलुशब्दोऽवधारणे-बहुतरबन्धादेव, इत्यं चैतदङ्गीकर्तव्यम्, सूत्रविरोधात् अन्यथा सूत्रविरोध इत्यर्थः, कथमिति आह-यतो भणितं यस्मादुक्तमिति।
सर्वसाधारण के लाभ के लिए टीका में कुछ अधिक स्पष्टीकरण की आवश्यकता थी। पर हरिभद्र सूरि की प्रायः यह पद्धति ही रही है, भले ही चाहे वह स्वोपज्ञ टीका हो अथवा किसी अन्य ग्रन्थकार द्वारा निर्मित ग्रन्थ की टीका हो। हरिभद्र सूरि की अपेक्षा मलयगिरि सूरि विरचित टीकाओं में कुछ विशेषता देखी जाती है। उन्होंने अपनी टीकाओं में व्याख्येय तत्त्व को यथासम्भव अधिक स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है। किन्तु हरिभद्र सूरि ने जहाँ कुछ अधिक कहने की आवश्यकता समझी वहाँ अपनी ओर से कुछ विशेष न कहकर पूर्व परम्परा से प्राप्त सन्दर्भो को जैसा का तैसा उद्धृत कर दिया है। ऐसा सम्भवतः उन्होंने अपनी प्रामाणिकता को सुरक्षित रखने की दृष्टि से किया है, ऐसा प्रतीत होता है। उदाहरणार्थ, प्रस्तुत श्रा. प्र. की ही गा. १३ में निर्दिष्ट दर्शनावरण के निद्रादि भेदों के स्वरूप को अपने शब्दों में न व्यक्त करके किसी प्राचीन ग्रन्थ से दो गाथाओं को उद्धृत करके उनके द्वारा प्रकट किया गया है। इसी प्रकार गा. ९१ में 'पेयापेय' तथा गा. ६३ में राजा व अमात्य, विद्यासाधक श्रावक व श्रावकसुता, चाणक्य और सौराष्ट्र श्रावक ये पाँच उदाहरण शंका-कांक्षादि अतिचारों के स्पष्टीकरण में दिये गये हैं। हरिभद्र सूरि ने अपनी टीका में इनकी कथाओं को अपने स्वयं के शब्दों में न लिखकर सम्भवतः उन्हें किसी अन्य ग्रन्थ से उधत कर दिया है। यही बात गा. ११५ में निर्दिष्ट 'गाथापति-सुत-चोरग्रहण-मोचन' विषयक कथा के सम्बन्ध में भी कही जा सकती है। इस गाथा की टीका के अन्त में तो उन्होंने अपनी प्रामाणिकता को सुरक्षित रखते हुए यह स्पष्ट भी कर दिया है कि यह अपनी बुद्धि से कल्पना नहीं की गयी है, सूत्रकृतांग में वैसा कहा गया है, इत्यादि।
इसी प्रकार आगे भी उन्होंने 'तत्र वृद्धसम्प्रदायः' (२८३), 'तथा च वृद्धसम्प्रदायः' (२८५), 'भावार्थस्तु वृद्धसम्प्रदायादेव अवसेयः स चायम्' (२८८), 'इह च सामाचारी, एत्थ सामायारी, एत्थ सामायारी, एत्थ वि सामायारी' (२९१), 'एत्थ पुण सामायारी' (२९२), 'भावत्थो पुण इमो' (३२२), 'एत्थ भावणा' (३२४), 'एत्थ सामायारी' (३२६), '...भणितमागमे, तच्चेदं (३८४) इत्यादि प्रकार की सूचना करते हुए कितने ही सन्दर्भो को उद्धृत किया है जो सम्भवतः आवश्यकचूर्णि आदि के हो सकते हैं। हरिभद्र सूरि
___ उपर्युक्त टीका के कर्ता हरिभद्र सूरि हैं, यह निश्चित है। जैसी कि पीछे 'ग्रन्थकार' शीर्षक में पर्याप्त विचार-विमर्श के साथ सम्भावना व्यक्त की गयी है, हरिभद्र सूरि मूल ग्रन्थ के भी कर्ता हो सकते हैं।
हरिभद्र सूरि जन्मतः वैदिक धर्मानुयायी ब्राह्मण विद्वान थे। निवासस्थान उनका चित्रकूट रहा है।
सूर मूल ग्रन्थ के भी कता हो सकते है