Book Title: Sarvagna Kathit Param Samayik Dharm
Author(s): Kalapurnsuri
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 39
________________ १४ सर्वज्ञ कथित : परम सामायिक धर्म इस सामायिक धर्म की ससम्मान आराधना तीर्थकर भगवान की आज्ञा को ही आराधना है; उनकी आज्ञा का हो बहुमान है और तत्त्वतः तीर्थकर भगवान का ही सम्मान है। इस सम्मान भावना से पर्याप्त कर्मक्षय करने वाला व्यक्ति क्रमशः गुणश्रेणी पर आरोहण करके सामायिक की शुद्धता को ज्वलन्त करता जाता है। दसवें गुणस्थानक पर पहुंचकर यह सामायिक 'सूक्ष्म-संपराय के रूप में परिवर्तित हो जाती है और ११, १२, १३, १४ वें गुणस्थानक पर यही सामायिक 'यथाख्यातपन' के परिणाम प्राप्त कर लेती है। इस प्रकार सामायिक की शुद्धता में वृद्धि होने पर शुक्लध्यान प्रकट होता है, शुक्लध्यान से केवलज्ञान की प्राप्ति होती है और अन्त में आत्मस्वभाव की पूर्णता के रूप में मोक्ष प्राप्त होता है। परम पुरुषों ने इस कारण ही चन्दन के समान सर्व मध्यस्थ भाव रूपी चित्त को अर्थात् सामायिक को मोक्ष का प्रधान अंग माना है। सर्व विरति सामायिक मोक्ष का प्रधान साधन होते हुए भी उसकी प्राप्ति अत्यन्त दुर्लभ है । कोई विरला पुण्यशाली व्यक्ति ही सावध योग की संगति का सर्वथा परित्याग करके उज्ज्वल हो सकता है; परन्तु उक्त पुण्यसामर्थ्य के अभाव में भी सम्यक्त्व सामायिक एवं देश-विरति सामायिक की विधिपूर्वक सादर आराधना की जाये तो क्रमशः प्रबल चारित्र-मोहनीय कर्म क्षय होने पर इस जीवन में अथवा आगामी जन्म में सम्पूर्ण सामायिक प्राप्त करने का प्रचण्ड बल प्रकट हो सकता है। किसी भी इष्ट वस्तु की प्राप्ति तदनुरूप प्रवृत्ति करने से होती है। सर्व-विरति आदि चारों सामायिक की प्राप्ति भी उनके अनुकूल प्रवृत्ति करने से अवश्य हो सकती है। अव यहां क्रमशः चारों सामायिक को प्राप्ति के सरल उपाय बताये जाते हैं। यदि उन्हें जीवन में आजमाया जाये, उनको आचरण में लाया जाये तो उत्तरोत्तर आत्मिक विकास होने पर क्रमशः सम्पूर्ण सामायिकभाव प्राप्त किया जा सकता है। सर्व-विरति सामायिक प्राप्त करने के उपाय सर्व-विरति सामायिक के अभिलाषी व्यक्ति को अपने जीवन की समस्त प्रवृत्तियों को मोक्ष-मार्ग के अनुकूल बनानी चाहिये, अर्थात् मार्गानुसारिता तथा सम्यग्ज्ञान, दर्शन और चारित्र आदि गुणों का विकास होता रहे ऐसी प्रवृत्ति करनी चाहिये । मोक्ष-साधना में विघ्न-भूत कोई भी प्रवृत्ति नहीं करनी चाहिये । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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