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१४० सर्वज्ञ कथित : परम सामायिक धर्म
बहिरात्म-भाव को त्यागकर अन्तरात्मस्वरूप में स्थिर होकर आत्मा को परमात्म-स्वरूप में भजना अर्थात् परमात्मा-भावना से आत्मा को वासित करना, जिससे आत्मा का परमात्मा में समर्पण होता है, और आत्मार्पण का स्वरूप निश्चय से सोचने पर परमात्मा के साथ भेद-सम्बन्ध का भ्रम मिट जाता है और आनन्दघन रस से परिपुष्ट परम आत्म-सम्पत्ति की सम्प्राप्ति होती है। उपशम, विवेक एवं संवर के द्वारा समापत्ति
(१) उपशम--कषायों का शमन करना, शान्त करना। (२) विवेक-भेदज्ञान-आत्मा और कर्म की भिन्नता का विचार । (३) संवर-कर्मों को रोकने का उपाय। "उपशम" सम्यग-दर्शन स्वरूप है, उससे चित्त निर्मल होता है ।
"विवेक" सम्यगज्ञान स्वरूप है, सम्यग्ज्ञान से चित्त में स्थिरता आती है।
____“संवर" सम्यगचारित्र स्वरूप है, चारित्र आत्म-स्वभाव की रमणता स्वरूप है, जिससे चित्त में तन्मयता आती है, अर्थात् आत्मा तथा परमात्मा का भेदभाव मिटकर एकता का अनुभव होता है; यही "समापत्ति" है। तीन प्रकार को पूजाओं से भी समापत्ति
(१) द्रव्य पूजा-अष्ट प्रकार को पूजा से चित्त निर्मल बनता है और प्रसन्नता होती है।
(२) प्रशस्तभाव पूजा - चैत्यवन्दन, स्तुति, स्तवना, प्रार्थना, गुणगान आदि करने से चित्त में स्थिरता आती है।
(३) शुद्ध भाव पूजा-परमात्मा के गुणों का स्थिरतापूर्वक चिन्तन (ध्यान) करने से क्रमशः जब तन्मयता आती है तब "समापत्ति" सिद्ध होती है।
(१) पिण्डस्थ -छद्मस्थ अवस्था--प्रभु की बाल्यावस्था (जन्मोत्सव, स्नात्र आदि) राज्यावस्था और मुनि अवस्था का चिन्तन करने से चित्त निर्मल होता है।
(२) पदस्थ-केवली अवस्था--प्रभु की केवलज्ञान अवस्था का विचार करने से चित्त स्थिर होता है।
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