Book Title: Sarvagna Kathit Param Samayik Dharm
Author(s): Kalapurnsuri
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 178
________________ समापत्ति एवं गुणश्रेणी १५३ व्यवहार की अपेक्षा से मार्गानुसारी-अपुनर्बन्धक अवस्था में योगधर्म का बीजरूप उचित (शास्त्रोक्त) अनुष्ठान भी निश्चय धर्म को प्रकट करने वाला होने से व्यवहार से धर्म कहलाता है। इस प्रकार विशिष्ट ध्यान रूप अथवा ध्यान को फलस्वरूप “समापत्ति" शुद्ध आत्मधर्म का अनन्तर प्रधान कारण होने से "भावधर्म" ही है और वह भाव ही समस्त अनुष्ठानों का ध्येय है, फल है। भावसेवा और समापत्ति परमात्म समापत्ति अरिहन्त परमात्मा की "भावसेवा" है; पराभक्ति (परम उत्कृष्ट भक्ति) है और शुद्ध भावपूजा' है; क्योंकि इन तीनों के लक्षण समापत्ति में घटित हाते हैं। परमात्मा की निर्मल, स्थिर चित्त से सेवा, भक्ति अथवा पूजा करके उनके स्वरूप में तन्मय हो जाना ही "भावसेवा" है; पराभक्ति अथवा शुद्ध भाव-पूजा का लक्षण है और ध्याता, ध्यान और होय की एकतारूप परमात्म समापत्ति भी चित्त को निर्मलता, स्थिरता एवं तन्मयता के द्वारा सिद्ध होती होने से परमात्मा की भावसेवा, पराभक्ति अथवा शुद्ध भाव पूजा ही है, यह जानकर परमात्मा की भावपूजा में-भक्तिसेवा में तत्पर होकर आत्मस्वरूप का अनुभव करना चाहिये। ___ (भावसेवा दो प्रकार की है-(१) अपवाद भावसेवा और (२) उत्सर्ग भावसेवा । उसका और शुद्ध भावपूजा का विस्तृत स्वरूप देवचन्द्र जी कृत आठव और बारहवें प्रभु के स्तवन के विवेचन से ज्ञात कर लें ।) सात नयों से समापत्ति अथवा भावसेवा का चिन्तन· परमात्मा की भावसेवा के दो भेद हैं (१) अपवाद भावसेवा (निमित्तरूप भाव सेवा) और (२) उत्सर्ग भावसेवा (कार्य-उपादान रूप भाव सेवा । १ सा (भक्ति) त्वस्मिन् (परमात्मनि) परमप्रेमरूपा । अमृतस्वरूपा च यल्लब्ध्वा पुमान्-सिद्धो भवति; अमृतो भवति, तृप्तो भवति । वह भक्ति-परमात्मा में परम प्रेम-प्रीति स्वरूप है, अमृत-मोक्षस्वरूप है, क्योंकि जिस भक्ति को पाकर भक्त सिद्ध बनता है, अमृतमय अथवा अमृत बनता है, परम तृप्त होता है। (नारद-भक्तिसूत्र) Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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