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१६२ सर्वज्ञ कथित : परम सामायिक धर्म निर्जरा सिद्ध होती होने पर भी “जीवरक्षा" के लिये उसे त्याग देने का विधान अहिंसा (दया) की आवश्यकता एवं समस्त अनुष्ठानों में उसको प्रधानता सूचित करता है।
कोई शुष्कध्यानी ध्यान के लोभ से भी जीव-हिंसा की उपेक्षा करके निर्दय अथवा निष्ठुर न हो जाये उस हेतु से ही भाव-करुणा के भण्डार श्री तीथंकर एवं गणधर भगवन्तों ने इन आगारों का विधान किया है।
मर्यादा (अवधि)-कायोत्सर्ग का काल-प्रमाण "जाव अरिहंताणं, भगवन्ताणं, नमुक्कारेणं, न पारेमि"-इन चार पदों के द्वारा बताया गया है। अतः जब तक अरिहंत भगवन्तों को नमस्कार करके अर्थात् “नमो अरिहन्ताणं" पद का उच्चार करके नहीं पारूं तब तक कायोत्सर्ग की अवस्था में रहूँगा।
कायोत्सर्ग का (जघन्य) कम से कम काल प्रमाण आठ श्वासोश्वास का होता है, तथा "इरियावहियं" में पच्चीस श्वासोश्वास का प्रमाण होता है, कभी-कभी सत्ताईस अथवा अठाईस श्वासोश्वास भी होते हैं। इस प्रकार जहां जितना प्रमाण बताया गया हो वहां उतना समय पूर्ण होने के पश्चात "नमो अरिहन्तागं" का उच्चारण करके काउस्सग पारना चाहिये । मर्यादित (निश्चित) समय से पूर्व "नमो अरिहन्ताणं" बोलकर काउस्सग पारा जाये तो कायोत्सर्ग का भंग होता है, तथा निश्चित समय व्यतीत होने के पश्चात् 'नमो अरिहन्ताणं" कहकर पारे तो भी कायोत्सर्ग भंग होता है । इस प्रकार कायोत्सर्ग निश्चित काल प्रमाण से युक्त होता है। चेष्टा एवं अभिभव के भेद से कायोत्सर्ग के दो भेद हैं
(१) चेष्टा-जो कायोत्सर्ग गमनागमन के पश्चात्, विहार के पश्चात् दिन-रात्रि (देवसी राई आदि) पक्ष, चातुर्मास अथवा संवत्सर के अन्त में निश्चित प्रमाण में किया जाता है, उसे चेष्टा कायोत्सर्ग कहते हैं। उसका निश्चित काल प्रमाण इस प्रकार है--जघन्य से आठ श्वासोश्वास', उत्कृष्ट से १००८ श्वासोश्वास ।
१ पाय सम उसासा--अर्थात् यहाँ कायोत्सर्ग में एक पाद (श्लोक का चौथाई भाग) उच्चारण काल को श्वासोश्वास समझें।
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