Book Title: Sarvagna Kathit Param Samayik Dharm
Author(s): Kalapurnsuri
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 192
________________ समापत्ति और कायोत्सर्ग १६७ इसमें भक्तियोग, ज्ञानयोग और चारित्र (कर्म) योग की आराधना के द्वारा परमात्मा के साथ, परमात्मा के शुद्ध द्रव्य-गुण एवं पर्याय के साथ तन्मयता होती है, तब चेतन द्रव्य को साधर्म्यता से स्वआत्मस्वरूप का परिचय होता है। स्व आत्मा के द्रव्य-गुण-पर्याय के चिन्तन में लीनता होने पर शुद्धात्मा के सुख और आनन्द की अनुभूति होती है, आत्मा और परमात्मा के मध्य का अम्तर (भेदभाव) समाप्त हो जाता है और आत्मा तथा देह को भिन्नता का भान होता है, जिससे देहाध्यास (अहिरात्म भाव) दूर होने पर अन्तरात्व-भाव में स्थिर होकर परमात्म-भावना उत्पन्न होती है। परमात्म भावना से युक्त व्यक्ति स्वयं को परमात्म स्वरूप में अनुभव करे यही "शुद्धात्मानुभव" कहलाता है । इस प्रकार कायोत्सर्ग के द्वारा शुद्ध आत्मानुभूति होती होने से यह शुद्ध समाधि स्वरूप है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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