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समापत्ति और कायोत्सर्ग १६५ (६) संलीनता-कायोत्सर्ग में समस्त अंग-उपांगों का संकोच सहज ही हो जाता है।
इस प्रकार कायोत्सर्ग में बाह्य तप का आचरण सहज भाव से ही होता है, तथा अभ्यन्तर तप के भी समस्त भेद उसमें समाविष्ट हैं जो इस प्रकार है
(१) प्रायश्चित्त-कायोत्सर्ग के द्वारा पाप का उच्छेद और चित्त की निर्मलता होती होने से वह प्रायश्चित्त का ही एक भेद है।
(२) विनय, (३) वैयावच्च-अरिहन्त परमात्मा की प्रतिमा को वन्दन, पूजन, सत्कार और सम्मान के लिये किये जाने वाले कायोत्सर्ग के द्वारा भाव-विनय एवं भाव वैयावच्च सिद्ध होता है।
(४) स्वाध्याय-कायोत्सर्ग में धारणा एवं अनुप्रेक्षा पूर्वक श्रुत-ज्ञान शास्त्रोक्त पदार्थों का चिन्तन होता है, तथा श्रुतस्कंध, अध्ययन एवं उद्देशारूप आगमों के पाठ लेना, उन्हें स्थायी करना तथा अनुज्ञा प्राप्त करने के लिये भी कायोत्सर्ग किया जाता है । अतः कायोत्सर्ग के द्वारा उस समय श्रुतज्ञान को ग्रहण करने का क्षयोपशम प्रकट होता है। इस प्रकार कायोत्सर्ग के द्वारा श्रुतज्ञान की आराधना होती है।
(५) ध्यान-कायोत्सर्ग में धर्मध्यान और शुक्लध्यान के समस्त प्रकारों के द्वारा ध्येय का चिन्तन हो सकता है, इस कारण वह विशिष्ट ध्यान योग ही है।
इस प्रकार कायोत्सर्ग के द्वारा समस्त प्रकार के प्रशस्त ध्यानों की सिद्धि होती है।
(६) कायोत्सर्ग-काया-देह का त्याग दो प्रकार से हो सकता है।
(१) अल्पकाल के लिए देहाध्यास (बहिरात्म भाव) का देह की चिन्ता अथवा ममता का त्याग ।
(२) सदा के लिए सर्वदा काया का तया देहाध्यास का त्याग ।
प्रस्तुत कायोत्सर्ग के द्वारा दोनों प्रकार का त्याग सिद्ध हो सकता है। इस प्रकार कायोत्सर्ग के द्वारा समस्त प्रकार के तप की आराधना होती होने से पूर्ण कर्म-क्षय रूप निर्जरा को सिद्ध करती है ।
___इस प्रकार कायोत्सर्ग के द्वारा पुण्यानुबन्धी पुण्य, संवर और निर्जरा तत्व (मोक्ष के साधक तत्व) को सिद्धि होता है जिससे शोघ्र मोक्ष प्राप्त होता है।
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