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सर्वज्ञ कथित : परम सामायिक धर्म
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देव, गुरु और धर्म से समापत्ति
(१) अहिंसा आदि धर्म का पालन करने से चित्त निर्मल होता हैं | (२) सद्गुरु की सेवा, भक्ति, आज्ञा-पालन से चित्त स्थिर होता है । (३) अरिहन्त परमात्मा के ध्यान से उनमें चित्त तन्मय होने पर " समापत्ति" सिद्ध होती है ।
अन्य प्रकार से
(१) देव तत्त्व की भक्ति से चित्त निर्मल होता है ।
(२) गुरु तत्त्व की भक्ति से चित्त स्थिर होता है ।
(३) चारित्रधर्म की साधना से तन्मय होने पर " समापत्ति" होती है ।
तीन अवंचक एवं समापत्ति
(१) योगावंचक - सद्गुरु के दर्शन एवं समागम से चित्त निर्मल होता है ।
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(२) क्रियावंचक – उनके उपदेशानुसार वन्दन आदि अनुष्ठान के आचरण से चित्त स्थिर होता है ।
(३) फलावंचक - अवंचक फल- अचूक - सानुबन्ध फल की प्राप्ति से क्रमशः आत्मस्वरूप के लक्ष्यवेध की शक्ति प्रकट होने पर परमात्म-स्वरूप में तन्मय होने पर " समापत्ति" सिद्ध होती है, अर्थात् आत्मस्वरूप का लक्ष्य-वेध होता है ।
तीन करणों से सम्यग् दर्शन रूप समापत्ति
(१) चरमयथाप्रवृत्तिकरण - ( धेराग्य परिणाम ) मे चित्त निर्मल होता है ।
(२) अपूर्वकरण (अपूर्वभाव अथवा वीर्योल्लास ) से चित्त स्थिर होता है ।
(३) अनिवृत्तिकरण - परमात्मस्वरूप में तन्मयता रूपो सम्यग्दर्शन प्राप्त किये बिना नहीं रहूंगा, ऐसे निश्चल परिणाम से " समापत्ति" (सम्यग् दर्शन रूप) सिद्ध होती है ।
छः आवश्यकों से समापत्ति
(१) सामायिक एवं प्रतिक्रमण - समस्त सावद्य योगों के परिहार से किये गये पापों के पश्चाताप से चित्त निर्मल होता है ।
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