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१४६ सर्वज्ञ कथित : परम सामायिक वर्म स्वाध्याय है । इनके द्वारा मोह-राग-द्वेष रूपी विष का वेग शान्त होने पर तन्मयता बाती है।
इस प्रकार अरिहन्त आदि के ध्यान में तन्मय होने से “समापत्ति" सिद्ध होती है। "नमो अरिहन्ताणं" पद के द्वारा समापत्ति की सिद्धि--
"नमो" पद के स्मरण से चित्त निर्मल होता है। "अरिहं" पद के स्मरण से चित्त स्थिर होता है।
'ताणं" पद के स्मरण से चित्त तन्मय होने से “समापत्ति" होती है। ."नमो" पद के स्मरण से समापत्ति
(१) "नमो" पद का उच्चारण वैखरी वाणी रूप होने से क्रियायोग है और इससे चित्त निर्मल होता है।
(२) "नमो" पद के अर्थ का चिन्तन मध्यमा वाणी रूप होने से भक्तियोग है और इससे चित्त स्थिर होता है ।
(३) “नमो" पद का ध्यान (एकाग्र संवित्ति) पश्यन्ती वाणी रूप होने से ज्ञानयोग है। इससे चित्त की तन्मयता होने पर 'समापत्ति" सिद्ध होती है । इसे “परावाणी" कहते हैं ।
इस प्रकार बीस स्थानक तथा नौ पदों की भक्ति से अथवा अरिहन्त आदि किसी एक भी पद की भावपूर्वक भक्ति से चित्त निर्मल, स्थिर और तन्मय होने पर "सम्पत्ति" सिद्ध हो सकती है; तथा अहिसा, संयम, क्षमा, तप आदि किसी भी एक-एक अनुष्ठान की आराधना से भी क्रमशः समापत्ति सिद्ध होती है। यहाँ तो सापेक्षता से मुख्य एवं गौण भाव को लेकर मुख्य-मुख्य अनुष्ठानों के द्वारा उसकी सिद्धि की गई है। विशेष रहस्य तो गीतार्थ महापुरुषों से समझ लें।
"समापत्ति" ध्यान का प्रधान फल है। जब एकत्व ध्यान की स्पर्शना से ध्येय परमात्मा के शुद्ध स्वरूप का वास्तविक ध्यान आता है तब ध्याता अपनी आत्मा के शुद्ध स्वरूप से परिचित होता है, आत्मा के आनन्द और सुख का अनुभव होता है। अतः सुज्ञ साधक को बार-बार परमात्मा के ध्यान में लीन होकर उक्त आनन्द एवं सुख की अनुभूति करने के लिए नित्य प्रयत्नशील होना चाहिये।
समस्त योग एवं धर्म-अनुष्ठानों का लक्ष्य आत्मा को परमात्मा
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