Book Title: Sarvagna Kathit Param Samayik Dharm
Author(s): Kalapurnsuri
Publisher: Prakrit Bharti Academy

View full book text
Previous | Next

Page 174
________________ समापत्ति एवं गुणश्रेणी १४६ ज्यों-ज्यों कर्म निर्जरा अधिक होती है, त्यों-त्यों आत्मा की शुद्धता में वृद्धि होती है और उक्तवधित आत्म-शुद्धता उत्तर अवस्था में प्राप्त होने वाली आत्म शुद्धता का कारण बनती है। इस प्रकार प्रत्येक गुणश्रेणी में अपूर्व आत्म-सामर्थ्य और अध्यवसाय की शुद्धि अधिकाधिक होती है, उसमें से प्रथम गुणश्रेणी करने के समय जो आत्म-सामर्थ्य प्रकट होता है, उसके मूल कारण का विचार करने पर समापत्ति का रहस्य विशेष स्पष्ट ज्ञात होता है। आगमों एवं कर्म ग्रन्थों में सम्यक्त्व प्राप्त होने से पूर्व तीन करणों का रहस्यमय वर्णन आता है। उक्त करण अथ, "आत्मा के निर्मल, स्थिर परिणाम" जिनके द्वारा पर्याप्त कर्म स्थिति का नाश होता है। (१) यथाप्रवृत्तिकरण, (२) अपूर्वकरण और (३) अनिवृत्तिकरण। प्रथम यथाप्रवृत्तिकरण तो अनेक बार होता है। जब होता है तब वैराग्य के भाव अवश्य होते हैं। उसके द्वारा आयु के अतिरिक्त सात कर्मों को स्थिति अन्तर्कोटाकोटि सागरोपम से भी तनिक न्यून हो जाती है। भव्य एवं अभव्य जीव भी ऐसी भूमिका में अनेक बार आकर पुनः नीचे गिर जाते हैं। परन्तु चरमपुद्गल परावर्त में आने पर कोई भव्य जीव चरम यथाप्रवृत्तिकरण की भूमिका में स्थिर होकर अपूर्वकरण का सामर्थ्य प्राप्त करने के लिए प्रबल पुरुषार्थ करता है, जिसका विस्तृत वर्णन योग की चार (मित्रा, तारा, बला, दीप्रा) दृष्टियों के द्वारा "योगदृष्टि समुच्चय" ग्रन्थ में हो चुका है। उक्त ग्रन्थ के अवगाहन से चरम ययाप्रवृत्तिकरण में होने वाली विशिष्ट साधनाओं का तनिक ध्यान आयेगा। अपूर्व जिनभक्ति, गुरुसेवा, श्रुतभक्ति, भववैराग्य, तत्वजिज्ञासा, तत्वश्रवण आदि योग के बीजों तथा यम, नियम, आसन और भाव-प्राणायाम आदि योग के अंगों का क्रमशः विकास होने पर चौथी दीपा दृष्टि में गुरु-भक्ति के प्रभाव से परमात्म समापत्ति सिद्ध होती है । चित्त की निर्मलता, स्थिरता और तन्मयता होने से ही यह समापत्ति हो सकती है। ध्याता, ध्येय और ध्यान की एकता ही समापत्ति है। परमात्मा के ध्यान में तन्मय बनो आत्मा जब स्वयं को भी परमात्म-स्वरूप में मानकर ध्यान करती है, अर्थात् संग्रहनय को दृष्टि से समस्त सत्ता से सिद्ध के समान होने से ऐसी सिद्धता मुझमें भी है यह जानकर आत्मस्वरूप में एकाकार हो जाती है । इस प्रकार बार-बार के सतत अभ्यास से उसमें अपूर्व आत्म-सामर्थ्य प्रकट होता है । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194