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समापत्ति और समाधि १४३ अमृत अनुष्ठान के द्वारा समापत्ति
भव का भय, विस्मय, पुलक, प्रमोद, समय-विधान, भाव-वृद्धि और तद्गतचित्त अमृत अनुष्ठान के लक्षण हैं।
(१) भव का भय-भव के भय अर्थात् विषय-कषाय के भय से तथा विस्मय, पुलक एवं प्रमोद के द्वारा चित्त निर्मल होता हैं ।
(२) समय-विधान-शास्त्रोक्त समय के अनुसार क्रिया करने से तथा शुभ भाव की वृद्धि होने से चित्त स्थिर होता है ।
(३) तद्गतचित्त-ध्येयाकार से चित्त की परिणमता से तन्मयता आतो हैं । वही "समापत्ति" कहलाती हैं । अष्ट प्रवचन माता के पालन से समापत्ति
(१) पांच समितियों से चित्त निर्मल होता हैं । (२) वचनगुप्ति एवं कायगुप्ति के द्वारा चित स्थिर होता हैं। - (३) मनोगुप्ति के द्वारा चित्त तन्मय होने पर “समापत्ति" सिद्ध होती है। दस यतिधर्म के पालन से समापत्ति
(१) क्षमा, मार्दव (मृदुता), आर्जव (सरलता), निर्लोभता, सत्य, शौच, अकिंचनत्व (निर्ममत्व) के द्वारा मन निर्मल होता है।
(२) संयम एवं ब्रह्मचर्य के द्वारा मन स्थिर होता हैं ।
(३) तप–बाह्य-आभ्यन्तर तप के द्वारा क्रमशः तन्मयता होती हैं तब समापत्ति सिद्ध होती हैं। पंचाचार का पालन करने से समापत्ति
(१) दर्शनाचार के पालन से चित्त निर्मल होता है-प्रसन्न होता है । (२) ज्ञानाचार के पालन से चित्त स्थिर होता है ।
(३) चारित्राचार, तपाचार एवं वीर्याचार के पालन से चित्त तन्मय होने पर “समापत्ति" सिद्ध होती हैं । पंचपरमेष्ठियों की भक्ति से समापत्ति
(१) मुनिराज की सेवा-भक्ति से चित्त निर्मल होता हैं ।
(२) उपाध्याय एवं आचार्य देव की सेवा-भक्ति से चित्त स्थिर होता है।
(३) अरिहन्त और सिद्ध भगवानों की भक्ति से चित्त तन्मय होता हैं, तब 'समापत्ति" सिद्ध होती हैं ।
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