________________
समापत्ति और समाधि १४१ (३) रूपातीत अवस्था-प्रभु की सिद्ध अवस्था का ध्यान करने से जब उसमें तन्मयता आती है तब "समापत्ति" सिद्ध होती है । श्रुतज्ञान, चिन्ताज्ञान और भावनाज्ञान के द्वारा समापत्ति
(१) श्रुतज्ञान से चित्त की निर्मलता प्रकट होती है । (२) चिन्ताज्ञान से चित्त की स्थिरता प्रकट होती है। (३) भावनाज्ञान से चित्त की तन्मयता प्रकट होती है ।
(१) श्रुतज्ञान-वाक्यार्थ मात्र के विषय युक्त, वितर्क आदि से रहित एवं स्वच्छ पानी के तुल्य होता है ।
(२) चिन्ताज्ञान-महा वाक्यार्थ, सर्व नयप्रमाणगामी, वितर्क आदि से युक्त दूध के स्वाद तुल्य होता है ।
(३) भावनाज्ञान-तात्पर्यार्थ के विषय वाला, आत्महित कारक अमृत-रस के स्वाद तुल्य होता है । अध्यात्म आदि पाँच प्रकार के योगों के द्वारा समापत्ति
(१) अध्यात्म एवं भावना योग के सतत अभ्यास से चित्त निर्मल बनता है।
(२) ध्यानयोग के सतत अभ्यास से चित स्थिर बनता है।
(३) समतायोग के अभ्यास से परमात्मा में लीनता होने पर “समापत्ति" होती है और क्रमशः वृत्तिसंक्षय योग के द्वारा समस्त वृत्तियों का निरोध होने पर मोक्ष-सुख प्राप्त होता है । चार अनुष्ठानों से समापत्ति
(१) इच्छायोग चित्त को निर्मल करता है। (२) शास्त्रयोग चित्त को स्थिर करता है।
(३) सामर्थ्ययोग से चित्त तन्मय होता है, उसे “समापत्ति" कहते हैं। धारणा आदि से समापत्ति
(१) धारणा के द्वारा चित्त की निर्मलता प्रकट होती है । (२) ध्यान के द्वारा चित्त स्थिर होता है।
(३) समाधि के द्वारा चित्त तन्मय होने पर "समापत्ति" होती है अथवा समाधि “समापत्ति" स्वरूप है।
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org