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सामायिक सूत्र : शब्दार्थ एवं विवेचना इन तीनों-साम, सम और सम्म-परिणामों को (सूत के धागे में मौती पिरोने की तरह) आत्मा में पिरोना, प्रकट करना हो सामायिक है। समता परिणाम स्वरूप सामायिक अतीन्द्रिय होने से केवल अनुभवगम्य है, जिसकी प्राप्ति से आत्मा को जो आनन्द प्राप्त होता है, उसके तारतम्य से उसके अनेक भेद किये जा सकते हैं।
(१) साम सामायिक-सामा मधुर परिणामी सामायिक । साम अर्थात् मैत्री भाव । समस्त जीवों के प्रति मैत्री भाव प्रकट करने से अपने सुख-दुःख की तरह अन्य जीवों के सुख-दुःख का विचार भी उत्पन्न होता हैं । अपना दुःख निवारण करने के साथ अन्य व्यक्ति के दुःख का निवारण करने का भी प्रयत्न होता है, तथा दूसरों के अपराध क्षमा करने और अपने अपराधों की क्षमा याचना करने की मन में प्रेरणा उत्पन्न होती है।
__ "योगदृष्टि समुच्चय" में बताई गई पाँच दृष्टियों में प्रकट होने वाले समस्त गुणों, योग के बीजों का भी इस अवस्था में आविर्भाव होता है। यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, इच्छा एवं प्रवृत्तियोग, अध्यात्म एवं भावना योग तथा प्रीति, भक्ति, अनुष्ठान आदि का अभ्यास किया जाये तो ही उपयुक्त "मधुर परिणाम" स्वरूप सामायिक प्रकट होती है, अथवा प्रकट सामायिक स्थायी होकर उत्तरोत्तर विकसित होती रहती है।
शास्त्रों में कहा भी है कि “सामायिक" द्वादशांगी का संक्षिप्त रूप है, षड् आवश्यक का मूल है। शेष आवश्यक सामायिक के ही अंग हैं, अर्थात् एक सामायिक में शेष आवश्यक के अनुष्ठान भी गौण भाव से समाविष्ट होते हैं। श्री आचारांग सूत्र में सामायिक का स्वरूप पाँच आचार आदि भेदों के द्वारा स्पष्ट किया गया है।
दया-प्रधान जिन-शासन समस्त जीवों को "अभय" करने की सर्व प्रथम शिक्षा देता है।
"शस्त्र परिज्ञा" अध्ययन में कहा भी है कि "समस्त जीवों को आत्मवत् मानकर उनकी भी रक्षा कर। जिस प्रकार तू अपनी आत्मा को दुख से मुक्त करके सुखी करना चाहता है, उसी प्रकार से तू अन्य समस्त स्थावर-जंगम जीवों को भी दुःख से मुक्त कर । जिस प्रकार तुझे मृत्यु का
१ महुर परिणाम साम, समं तुला सम्म सीरखंड जुइ ।
दोरे हारस्स चिई इगमेवाइं तु दवम्मि ॥
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