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-६२ सर्वज्ञ कथित : परम सामायिक धर्म भय भयभीत करता है, उसी प्रकार से समस्त जीव भी मृत्यु से भयभीत होते हैं। अतः किसी भी जीव की हिंसा हो अथवा उसे पीड़ा हो ऐसी प्रवृत्ति तू मत कर।"
अन्य जीवों को भय मुक्त करने से ही "अभय" प्राप्त हो सकता है । जन्म-मरण के भय से मुक्त होने के अभिलाषी व्यक्ति को अन्य जीवों के जन्म-मरण का निमित्त बनना छोड़ना ही पड़ेगा, और यह अहिंसा पूर्णतः पालन किये बिना असम्भव है। अहिंसा, अभय, अमारी, मैत्री, करुणा, क्षमा ये सब अहिंसा के पर्यायवाची हैं। समस्त जीवों को अभय करके अभय होने के लिये ही अहिंसा को प्रधानता दी गई है। अहिंसा के पालन से चित्त निर्मल होता है, निर्मल चित्त में आत्मज्ञान प्रकट होता है और आत्मज्ञान से समभावरूप सामायिक प्राप्त होती है तथा आत्मा में शुद्ध स्वरूप की अनुभूति भी इस अवस्था में ही होती है। इस सामायिक में 'चित्त की "श्लिष्ट अवस्था" होती है, तथा मनोगप्ति का प्रथम भेद "विमुक्त कल्पना-अशुभ कल्पना से विमुक्त मन" भी घटित किया जा सकता है।
शास्त्रों में "चेतना" को जीव का सर्वसामान्य लक्षण गिना गया है। उसकी सत्ता सिद्ध एवं संसारी समस्त जीवों पर सर्वदा होती है। सिद्ध भगवानों में यह "चेतना" पूर्ण शुद्ध (स्वरूप को प्राप्त) होती है, जबकि संसारी जीवों की चेतना के तीन प्रकार हैं। चेतना के तीन प्रकार
(१) कर्म चेतना-द्रव्यकर्म-ज्ञानावरणीय आदि, भावकर्म रागद्वेष आदि परिणाम।
(२) कर्मफल चेतना-सुख दुःख का अनुभव ।
(३) ज्ञान चेतना-सच्चिदानन्दमयस्वरूप, उपयोगात्मक आत्मपरिणाम, कर्म का क्षय, उपशम अथवा क्षयोपशम के अनुसार ज्ञान चेतना के अनेक भेद किये जा सकते हैं। समता परिणाम स्वरूप सामायिक भी "ज्ञान चेतना" स्वरूप है। साम, सम और सम्म रूप तीनों प्रकार की सामायिक का "ज्ञान चेतना" में अन्तर्भाव हो जाता है।
(२) “सम" सामायिक-सम-तुल्य परिणामस्वरूप सामायिक, प्रत्येक प्रसंग में अर्थात् राग-द्वेष की भावना उत्पन्न होने की सम्भावना हो अथवा मान-अपमान के संयोग उत्पन्न होने की सम्भावना हो उस समय 'चित्त को मध्यस्थ रखना, शत्र-मित्र, तृण-मणि अथवा सुख-दुःख के प्रति
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