Book Title: Sarvagna Kathit Param Samayik Dharm
Author(s): Kalapurnsuri
Publisher: Prakrit Bharti Academy

View full book text
Previous | Next

Page 157
________________ १३२ सर्वज्ञ कथित : परम सामायिक धर्म आगम-नोआगम तणो भाव ते जाणो साचो रे । आतम भावे थिर होजो, पर भावे मत राचो रे ॥ (उ० यशोवि० म०) आगम से और नोआगम से भाव ही वास्तविक भाव है, वस्तु का मूल स्वरूप है। अतः आत्म-भाव में स्थिर रहना चाहिए, पर-भाव में प्रमुदित नहीं होना चाहिये अर्थात् बहिरात्म भाव को दूर करके अन्तरात्मभाव में स्थिर होना चाहिये, ताकि परमात्म-स्वरूप में तन्मय होने पर आत्म-स्वभाव प्रकट होता है। शेष नाम आदि दान, शील, तप आदि भाव उत्पन्न करने के लिए हैं। इस प्रकार से शास्त्रोक्त समस्त अनुष्ठान आत्मा के पूर्ण, शुद्ध स्वरूप को प्रकट करने के लिये ही हैं। आत्मा का शुद्ध स्वरूप परमात्मध्यान में तन्मय हुए बिना प्राप्त नहीं हो सकता। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194