Book Title: Sarvagna Kathit Param Samayik Dharm
Author(s): Kalapurnsuri
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 155
________________ १३० सर्वज्ञ कथित : परम सामायिक धर्म जान कर उसमें उपयोग वाला ध्याता ही आगम से भाव-समापत्ति कहलाता है। (२) नो। आगम से भाव समापत्ति - ध्याता, ध्येय और ध्यान से एकता नो आगम से भाव समापत्ति कहलाती है। इस प्रकार जिस वस्तु का वर्णन प्रस्तुत में विवक्षित होता है, उस वस्तु का नोआगम (की अपेक्षा से) भाव-निक्षेप के द्वारा निर्देश दिया जाता है और आगम से भाव निक्षेप के द्वारा प्रस्तुत पदार्थ के उपयोग वाले ज्ञाता का निर्देश होता है। जिस प्रकार योगशास्त्र में ध्येयाकार में तन्मय बने ध्याता का निर्देश समापत्ति के द्वारा दिया जाता है, उसी प्रकार से आगम ग्रन्थों में शेयाकार में तन्मय बने ज्ञाता का निर्देश आगम से भाव निक्षेप के द्वारा दिया जाता है। “पातंजल योगदर्शन" में समापत्ति का लक्षण निम्नलिखित है "क्षीण वृत्तेरभिजातस्य मणे गृहीत-ग्रहण-ग्राह्यषु तत्स्थ्य तञ्जनता समापत्ति ॥" उत्तम जाति की स्फटिक मणि के समान राजस एवं तामस वृत्ति रहित निर्मल चित्त की गृहीता, ग्रहण और ग्राह्य (ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय) विषयों में स्थिरता होकर तन्मयता (वह स्वरूपमय स्थिति) हो, वह "समापत्ति" है। उक्त समापत्ति यदि शब्द. अर्थ और ज्ञान के विकल्पों से युक्त हो तो वह 'सवितर्क" अथवा "सविकल्प" समापत्ति कहलाती है । यदि शब्द एवं ज्ञान से रहित केवल ध्येयाकार (अर्थ) के रूप में प्रतीत होती हो तो वह "निवर्तक" अथवा "निर्विकल्प" समापत्ति कहलाती है। उपर्युक्त दोनों भेद स्थूल-भौतिक पदार्थ-विषयक समापत्ति के हैं। सूक्ष्म परमाणु आदि विषयक वाली समापत्ति को 'सविचार" एवं "निर्विचार" समापत्ति कहते हैं। इन चारों प्रकार को समापत्ति को “संप्रज्ञात समाधि'' भो कही जा सकती है। इससे यह निष्कर्ष निकलता है जो कि जब ज्ञाता के उपयोग की ज्ञेयाकार के रूप में परिणति होती है, तब वह समापत्ति कहलाती है। ३ नोआगम का अर्थ-आगम के एक अंश का अभाव, यहाँ श्रुतज्ञान और ध्यानरूप क्रिया दोनों की विवक्षा होने से निषेधक "नो" का प्रयोग आगम के एकदेश के निषेधार्थ हुआ है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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