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समापत्ति और समाधि १३७ अनुभव करती है, उसे ही समाधि" जाने और वह आगे की “समापत्ति" में कारणभूत बनती है। इस प्रकार उत्तरोतर कार्य-कारण-भाव सिद्ध होता होने से दोनों की भिन्नता होने पर भी कथंचित् एकता है । समापत्ति का फल--
गुरु-भक्ति प्रभावेन, तीर्थकृद्-दर्शनं मतं । समापत्त्यादि भेदेन, निर्वाणकनिबन्धनम् ।। ६४ ।।
(योगदृष्टि ) ध्याता, ध्येय एवं ध्यान की एकता होने को समापत्ति कहते हैं ।
गुरुभक्ति के प्रभाव से समापत्ति सिद्ध होती है और समापत्ति के द्वारा (ध्यान की स्पर्शना) तीर्थंकर भगवान के दर्शन प्राप्त होते हैं और उक्त दर्शन से शीघ्र मुक्ति प्राप्त होती है। (अथवा तीर्थंकर-नामकर्म उपाजित होता है; क्रमानुसार उक्त कर्मोदय से तीर्थकर बनता है।)
परमात्मा के समक्ष आत्म-समर्पण करना ही समापत्ति है । जब चित्त विशुद्ध (निर्मल) स्थिर और तन्मय होता है तब ही समापत्ति अथवा आत्मार्पण हो सकता है। अहिंसा आदि समस्त धर्म अनुष्ठानों की विधिपूर्वक आराधना करने से क्रमशः "समापत्ति' सिद्ध होती है। समापत्ति के साधन
___अहिंसा, संयम एवं तप रूप धर्म से समाप.त्त-धर्म ही उत्कृष्ट मंगल है अर्थात् ऐसा धर्म ही समस्त जीवों का परम कल्याण करने में समर्थ है। ऐसे धर्म का पूर्णतः पालक साधक भी समस्त जीवों का परम कल्याण करने के लिये समर्थ होता है, जिससे वह स्व-आत्मा का सम्पूर्ण शुद्ध स्वरूप प्रकट करता है और तब परमात्मा के साथ भेद सम्बन्ध मिट जाता है तथा सदा शाश्वत् काल का समागम प्राप्त होता है ।
अहिंसा-समस्त जीवों को किसी भी प्रकार की पीड़ा-व्यथा नहीं देनी ही वास्तविक अहिंसा है, दया है । हिंसा से हृदय में कठोरता आती है और अहिंसा से कोमलता-मृदुता आती है, हृदय सुकोमल बनता है। परस्पर उपकार करना जीव का स्वभाव है। सम्पूर्ण अहिंसा के पालन से समस्त जीव राशि को अभय करने से उनके साथ तात्त्विक सम्बन्ध स्थापित होता है, समस्त जीवों के साथ औचित्य का पालन होता है।
संयम-आत्म-स्वभाव को पूर्णतः प्रकट करना ही आत्मा का परम लक्ष्य है, मुख्य साध्य है।
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