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सर्वज्ञ कथित : परम सामायिक धर्म
आगम-नोआगम तणो भाव ते जाणो साचो रे । आतम भावे थिर होजो, पर भावे मत राचो रे ॥
(उ० यशोवि० म०) आगम से और नोआगम से भाव ही वास्तविक भाव है, वस्तु का मूल स्वरूप है। अतः आत्म-भाव में स्थिर रहना चाहिए, पर-भाव में प्रमुदित नहीं होना चाहिये अर्थात् बहिरात्म भाव को दूर करके अन्तरात्मभाव में स्थिर होना चाहिये, ताकि परमात्म-स्वरूप में तन्मय होने पर आत्म-स्वभाव प्रकट होता है।
शेष नाम आदि दान, शील, तप आदि भाव उत्पन्न करने के लिए हैं।
इस प्रकार से शास्त्रोक्त समस्त अनुष्ठान आत्मा के पूर्ण, शुद्ध स्वरूप को प्रकट करने के लिये ही हैं। आत्मा का शुद्ध स्वरूप परमात्मध्यान में तन्मय हुए बिना प्राप्त नहीं हो सकता।
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