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२. समापत्ति और समाधि
समापत्तिं ध्यान विशेष है। ध्यान के सतत अभ्यास से ध्याता ध्यान के द्वारा ध्येय के रूप में परिणमित होता है वह " समापत्ति" है, और उसका फल समाधि (समता ) की प्राप्ति है । योग के यम-नियम आदि आठ अंगों में उसका अन्तिम स्थान है । यम, नियम, प्रत्याहार, धारणा अथवा ध्यान का अन्तिम ध्येय "समाधि" है । किसी भी योग-साधना से जब समापत्ति अथवा समाधि सिद्ध होती है तब ही उस योग साधना की सफलता हुई मानी जाती है ।
समापत्ति का निमित्त आदरपूर्वक सदनुष्ठान का सेवन है और समाधि का अनन्तर कारण समापत्ति है, जिसके कारण में कार्य (उपचार) की अपेक्षा से समापत्ति को सामायिक (समाधि) भी कही जा सकती है, क्योंकि सामायिक, समतायोग, शम, चारित्र, संवर आदि इसके ही पर्याय हैं ।
(१) राग-द्वेष रहित ( अवस्था ) भाव ही "सम" है और उसकी प्राप्ति ही "सामायिक" है । विकल्प विषय से रहित, सदा स्वभाव के आलम्बन से युक्त, ज्ञान की परिपक्व दशा को "शम" कहते हैं । अविद्या - अनादिकालीन मिथ्या वासना वश इष्ट अथवा अनिष्ट पदार्थों में होने वाली इष्ट-अनिष्ट कल्पना का सम्यग्ज्ञान के द्वारा त्याग करना ही "समतायोग" है । निज आत्म-स्वभाव में रमण करना ही निश्चय चारित्र है । विषयकषाय की वृत्तियों, अव्रत अथवा अशुभ योग का निरोध करना ही "संवर" है ।
ये समस्त लक्षण समापत्ति अथवा समाधि में भी घटित होते हैं, क्योंकि चित्त की निर्मलता, स्थिरता और तन्मयता के द्वारा 'समापत्ति" सिद्ध होती है और उससे समाधि प्रकट होती है ।
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