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सामायिक सूत्र : शब्दार्थ एवं विवेचना
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"जावज्जीवाए" पद से काल के नियम जीवन पर्यन्त की प्रतिज्ञा सूचित होती है। ऐसी प्रतिज्ञा साधु भगवन्तों को होती है ।
" यावत्" शब्द परिणाम मर्यादा एवं अवधारणा को सूचित करता है ।
(१) परिणाम - जब तक मेरी आयु है, तब तक सगस्त सावद्य योगों का मैं परित्याग करता हूँ ।
(२) मर्यादा - प्रत्याख्यान के समय से प्रारम्भ करके मृत्यु तक मेरे समस्त सावद्य-योगों का त्याग है ।
(३) अवधारणा - इस वर्तमान जीवन तक मेरी यह प्रतिज्ञा है, भावी जीवन की नहीं है, क्योंकि देव आदि भव में अविरति का उदय होने से प्रतिज्ञा भंग का प्रसंग आ जाता है, तथा इस जीवन के पश्चात् भावी जीवन में मेरे छूट है अर्थात् मैं प्रतिज्ञामुक्त हूँ ऐसा विधान भी नहीं है क्योंकि इस छूट में भोग की आकांक्षा विद्यमान है ।
तीन योग एवं तोन करण ( ४, ५, ६ ) तिविहं ( न करोमि, न कारवेमि करंतंपि अन्नं न समणुजाणामि )
(, 5, 8) तिविहेणं (मणेणं, वायाए, कायेणं)
तीन योग एवं तीन करण से अर्थात् मन, वचन और काया से कोई भी सावद्य कार्य मैं स्वयं नहीं करूंगा, अन्य से नहीं कराऊँगा तथा करने वाले की अनुमोदना तक नहीं करूँगा और यह भी भूतकाल, भविष्यतकाल और वर्तमान काल से सम्बन्धित |
अशुभ अथवा शुभ प्रवृत्ति जिस प्रकार काया से हो सकती है, उसी प्रकार से मन-वचन से भी हो सकती है । यदि कोई प्रवृत्ति स्वयं न करे परन्तु दूसरे से कराये तो भी उसमें उसकी अनुमति एवं अनुमोदना होने से उस उस प्रवृत्ति का वह साझीदार हो जाता है । इस कारण से ही सामायिक की प्रतिज्ञा में तीन योग और तीन करण से सावद्य व्यापार का परित्याग किया गया है ।
योग करने, कराने और अनुमोदन करने के रूप में व्यापार मन, वचन और काया रूप करण के अधीन है । प्रत्याख्यान में योग की प्रधानता बताने के लिए प्रथम उसका निर्देश दिया है ।
ये करण और योग भी जीव के ही परिणामविशेष हैं, जिससे निश्चय नय से जीव के साथ उनकी एकता है । इस कारण से ही निश्चयनय से हिंसा में परिणत आत्मा ही हिंसा है और अहिंसा में परिणाम वाली
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