Book Title: Sarvagna Kathit Param Samayik Dharm
Author(s): Kalapurnsuri
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 149
________________ १२४ सर्वज्ञ कथित : परम सामायिक धर्म 'भन्ते ! हे भगवन्,' इस पद की व्याख्या पूर्व में की गई है तदनुसार समझें । प्रश्न- प्रारम्भ में कथित अर्थ की अनुवृत्ति अन्त तक चल सकती है, तो फिर "भन्ते" का प्रयोग पुनः क्यों किया गया हैं ? समाधान - (१) आपका कथन सत्य है, परन्तु केवल अनुवृत्ति से विधि-विधान की प्रवृत्ति नहीं होती, प्रयत्न करने से होती है। यहाँ भी पूर्व कथित अर्थ के स्मरणार्थ प्रयत्न किया गया है । (२) अथवा प्रस्तुत सामायिक की क्रिया समाप्त करके साधक उस सामायिक के दोषों की विशुद्धि के लिये उसके ( सामायिक के ) अतिचारों का निवर्तन आदि करने के लिए "भन्ते" शब्द का पुनरुच्चार करता है । (३) अथवा समस्त आवश्यक कर्तव्य गुरु को पूछ कर उनकी सम्मति से करने चाहिये । अतः यहाँ भी प्रतिक्रमणरूप सामायिक के अतिचारों की शुद्धि के लिए पुनः गुरु को पूछता है । (४) अथवा तो यह "भन्ते" शब्द सामायिक क्रिया के प्रत्यर्पणनिवेदन के रूप में है । कहा भी है कि गुरु को आज्ञा से प्रारम्भ की गई क्रिया की समाप्ति के समय गुरु को निवेदन करना चाहिए कि - "यह क्रिया समाप्त कर दी गई है ।" निन्दा एवं गर्हा दोनों शब्द सामान्यतया जुगुप्सा का अर्थ सूचित करते हैं, फिर भी गर्हा के द्वारा विशेष जुगुप्सा होती है । निन्दा आत्मसाक्षी से होती है और गर्हा गुरु की साक्षी से होती है । प्रश्न- - जुगुप्सा किसकी करनी चाहिये ? समाधान - भूतकाल में सावद्य पाप करने वाली, अश्लाध्य - अप्रशस्तभूत बनी अपनी आत्मा की जुगुप्सा करनी चाहिए । पाप करने वाले दूसरे व्यक्ति की नहीं परन्तु पाप करने वाली स्वयं की आत्मा की ही निन्दा गर्हा करनी होती है, आत्म-निन्दा गुण है, पर निन्दा दोष है । वोसिरामि व्युत्सृजामि - वि - विविध प्रकार से अथवा विशेष से, उत् = प्रबलता से, सृजामि = त्याग करता हूँ, अथवा सामायिक के तीन प्रकार हैं- सम्यक्त्व, श्रुत और चारित्र । उनके विलोम मिथ्यात्व, अज्ञान एवं अविरति हैं । वोसिराम = अपने उन तोनों दोषों का विशेष प्रकार से त्याग करता हूँ । यह है वोसिराम शब्द का भावार्थ । इस प्रकार "सामायिक सूत्र" में त्याज्य क्या और आदरणीय क्या ? आदि बिन्दुओं पर संक्षेप में विचार किया गया । * Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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