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सामायिक सूत्र : शब्दार्थ एवं विवेचना
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भी नहीं करूँगा, उसी प्रकार से भूतकाल और भविष्यतकाल में भी समझ लें । परन्तु इतनी विशेषता मुख्यतः लक्ष्य में रखें कि भूतकाल के पापों की अनुमोदना का त्याग हो सकता है और भविष्यतकाल का प्रत्याख्यान भी इस जीवन के लिए ही हो सकता है ।
अतीत काल के पाप कर्म का प्रतिक्रमण, वर्तमान काल के पाप-कर्म का संवरण और भविष्यतकाल के पाप-कर्म का प्रत्याख्यान होता है ।
चार प्रतिज्ञा - (१०, ११, १२, १३) तस्स भन्ते पडिक्कमामि, निदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि ।
(१) हे भगवन् ! भूतकाल में किये गये अनेक पापकर्मों का मैं पश्चाताप करता हूँ ।
(२) हे भगवन् ! भूतकाल में किये गये अनेक पाप कर्मों की मैं निन्दा करता हूँ ।
(३) हे भगवन् ! भूतकाल में किये गये अनेक पाप कर्मों की मैं गुरुसाक्षी से गर्हा - विशेष निन्दा करता हूँ ।
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(४) तथा उन पाप - व्यापारों से मलिन बनी मेरी आत्मा का मैं त्याग करता हूँ ।
विशेषार्थ - (१) प्रतिक्रमण "ज्ञान स्वरूप" है, क्योंकि उसमें पाप का पाप के रूप में यथार्थ बोध हुआ है, जिससे पाप का सच्चा पश्चात्ताप होने से प्रतिक्रमण हो सकता है, अथवा प्रतिक्रमण पूर्व दोषों (मल) की शुद्धि के लिए होने से "विरेचन" के स्थान पर है । (२) पाप की निन्दा “सम्यग्दर्शन" स्वरूप है, को पाप के रूप में श्रद्धापूर्वक स्वीकार किया गया है, अपथ्य भोजन के परित्याग के समान है, क्योंकि सम्यक्त्व के द्वारा मिथ्यात्व, शंका, कांक्षा आदि दूर होते हैं ।
क्योंकि उसमें पाप अथवा पाप निन्दा
(३) पाप की गर्हा "चारित्र" स्वरूप है, क्योंकि उसमें गुरु साक्षी से पाप का परिहार होता है, अथवा गर्दा पथ्य भोजन के स्थान पर है जो पथ्य भोजन की तरह आत्म- गुणों को पुष्ट करती है ।
(४) आत्म-विसर्जन - पापयुक्त आत्मा का विसर्जन "तप" स्वरूप है, क्योंकि उसमें पाप न करने का प्रबल पुरुषार्थ है और वह ( सावद्य आत्मविसर्जन) आत्म- गुणों को रसायन की तरह पुष्ट करता है ।
सामान्य रीति से त्रिकाल विषयक पाप की प्रतिज्ञा में से भूतकालीन पाप का प्रतिक्रमण होता है । " तस्स" शब्द के द्वारा भूतकाल विषयक पाप ग्रहण किया गया है ।
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