Book Title: Sarvagna Kathit Param Samayik Dharm
Author(s): Kalapurnsuri
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 144
________________ सामायिक सूत्र : शब्दार्थ एवं विवेचना L ११६ है । समापत्ति को भी योगी पुरुषों की "माता" कहा जाता है। कहा भी है कि सर्वज्ञ परमात्मा परम चिन्तामणि हैं । उनके आदर-सम्मान से समापत्ति समरस की प्राप्ति होती है । वह समापत्ति " योगी-माता" कहलाती है और वह अवश्य ही मोक्ष फलदायिनी है । निषेधात्मक सामायिक का स्वरूप सर्व सावध व्यापार का त्याग - सव्वं सावज्जं जोगं पच्चक्खामि - समस्त पाप व्यापारों का प्रत्याख्यान करता हूँ । सर्व-निरवशेष, सम्पूर्ण, समस्त प्रकार के । सावद्यं - अवद्य - निन्दनीय पाप, पापयुक्त = सावद्य । योगं - आत्मा के साथ कर्म का के व्यापार । सम्बन्ध अथवा मन, वचन, काया प्रत्याख्यामि - त्याग करता हूँ, मन, वचन और काया के व्यापारों का भावार्थ- पहले ' मैं सामायिक करता हूँ" - ऐसी प्रतिज्ञा के द्वारा विधेयात्मक सामायिक का निर्देश दिया । अब निषेधात्मक सामायिक का स्वरूप स्पष्ट करता है । अर्थात् समस्त प्रकार के पाप-युक्त त्याग करता हूँ । मन, वचन और काया से सम्बन्धित अशुभ व्वापारों का त्याग करना' सामायिक" है । अशुभ ( प प ) वृत्ति को तिलांजलि दिये बिना शुभ (धर्म) प्रवृत्ति नहीं हो सकती । अतः सर्वप्रथम समस्त पाप प्रवृत्तियों का त्याग करने के लिए प्रेरित होना चाहिये । सावद्य योग का परिहार एवं निरवद्य योग का सेवन ही सामायिक का लक्षण है । Jain Educationa International समस्त शुभ-अशुभ योग- व्यापारों का त्याग तो अयोगी अवस्था में शैलेशीकरण के समय ही होता है । उससे पूर्व शुभ (निरवद्य) योगों का व्यापार अवश्य होता हैं जो समस्त सावद्य-योगों के परिहार से ही सम्भव होता हैं । जब तक मन, वचन और काया हिंसा आदि पाप-व्यापारों में संलग्न हैं, तब तक मन से शुभ विचार, वचन से शुभ उच्चार और काया से शुभ आचार कैसे हो सकते हैं ? अशुद्धता को दूर करने से ही शुद्धता आती है । अशुभ के परिहार से हो शुभ का आविष्कार होता हैं । समस्त प्रकार के अशुभ व्यापारों का ( दोषों का ) अन्तर्भाव " आश्रवतत्व" में हो जाता है । For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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