________________
सामायिक सूत्र : शब्दार्थ एकं बिकेवना ११३ आत्मानुभूति के बाह्य चिन्ह-आत्मानुभूति के समय योगी की देह तेल आदि के मर्दन के बिना भी अत्यन्त मृदु एवं स्निग्ध बनती है, तथा स्तब्धता दूर होने से पूर्णत. शिथिल हो जाती है, पुष्प के समान सर्वथा हलकी हो जाती है । तेल-मर्दन से कृत्रिम रूप से आई हुई चिकनाहट अथवा प्रस्वेद आदि के कारण प्रतीत होती देह को सुकोमलता आत्मानुभूति के चिन्ह नहीं है, परन्तु किन्ही बाह्य साधनों के बिना मन की अमनस्क (विमनस्क) अवस्था में स्वाभाविक तौर से उपयुक्त भावों की अनुभूति हो तो समझना चाहिये कि ये आत्म-साक्षात्कार के सूचक चिन्ह हैं।
उन्मनी (अमनस्क) भाव का महत्त्व-मन को शल्य एवं संक्लेश रहित बनाने का परम उपाय एकमात्र उन्मनी भाव है। इसके बिना मन में थल्यों का सर्वथा उन्मूलन नहीं हो सकता।
आत्म-दर्शन की तीव्र उत्कंठा वाले अप्रमत्त योगी भी तनिक भी प्रमाद किये बिना अत्यन्त दूर्वार, चंचल, सूक्ष्म एवं शीघ्रगामी मन का भेदन करने के लिए उन्मनी भाव का ही आश्रय लेते हैं और अपनी आत्मदर्शन की उत्कंठा पूर्ण करते हैं। उन्मनी भाव में डुबकी लगाते योगियों को अपनी देह के अस्तित्व की स्मृति तक नहीं रहती-मानों वेह बिखर गई हो, जल कर राख हो गई हो, अर्थात् उन्हें केवल देह रहित आत्मा का ही अनुभव होता है।
उन्मनी भाव का फल - आत्म-तत्व की अनुभूति ही उन्मनी भाव का परम फल है।
उन्मनीभाव के आन्तरिक चिन्ह --अविद्या-बहिरात्म भाव (मिथ्यात्व) का सर्वथा नाश होता है, अर्थात् अब देह के प्रति कदापि. आत्म-बुद्धि नहीं होती।
इन्द्रियजनित विकारों का नाश होने से परम शान्त सुधारस के आस्वादन का अनुभव होता है ।
प्राणायाम के अभ्यास बिना भी प्राणवायु का विलय होता है, अर्थात चिरकाल तक प्रयत्न करने पर भी जिस प्राणवायु पर नियन्त्रण नहीं हो पा रहा था, वह वायु उन्ममी भाव (अमनस्कता) के प्रकट होने से स्थिर हो जाता है।
उन्मनी भाव से आत्मानुभूति-मन की उन्मनी अवस्था प्राप्त होने के पश्चात् भी साधक योगी उसके अविरल अभ्यास के द्वारा ज्यों-ज्यों
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org