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सर्वज्ञ कथित: परम सामायिक धर्म
चिन्तन ( ध्यान ) करता है उसके कारण वह उसके आकार को प्राप्त कर लेता है । जिस प्रकार ईयल भ्रमरी के सतत ध्यान से -- तद्रूप परिणाम से भ्रमरी के रूप में उत्पन्न होती है । उसी प्रकार से अन्तरात्मा भी परमात्मा के ध्यानावेश से अर्थात् आत्मा में परमात्म भावना लाकर परमात्म स्वरूप में तन्मय होता हैं । उस समय ध्याता, ध्यान और ध्येय की एकता रूप समापत्ति सिद्ध होने पर ध्याता को परमात्म-सदृश स्व-आत्मा का अनुभव होता है । इस प्रक्रिया को "आत्मार्पण" कहा जा सकता है, क्योंकि यहाँ आत्मा का परमात्मा में पूर्ण समर्पण होता है ।
समस्त प्रकार की आन्तरिक वृत्तियाँ शान्त होने पर जो समरसी भाव उत्पन्न होता है उसे परम उन्मनी भाव, अमनस्कयोग, लय-अवस्था अथवा परम औदासीन्य भाव भी कहते हैं और इस अवस्था में आत्मानुभूति अवश्य होती है ।
यदिदं तदिति न वक्तुं साक्षाद्गुरुणा पि हन्त शक्येत । औदासीन्यपरस्य प्रकाशते तत्स्वयं
तत्वम् ॥
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बाह्य घट आदि पदार्थ की तरह "ये रहा आत्म तत्व" इस प्रकार गुरु भी जिस तत्व को साक्षात् नहीं बता सकते, वह तत्व उदासीन भाव में तत्पर बने साधक को स्वयं प्रकाशित होता है । यह है उदासीन भाव का
प्रभाव ।
- (योगशास्त्र)
सद्गुरुओं की सेवा करते हुए शास्त्राध्ययन करके आत्मानुभव के सच्चे उपाय जानकर उनके निरन्तर सेवन से क्रमानुसार जब आत्मानुभूति की भूमिका प्राप्त होती है, तब शास्त्रोक्त वचनों के स्मरण-संस्कार मात्र से अनायास ही आत्म-तत्त्व का साक्षात्कार होता है । उस समय गुरु अथवा शास्त्र-वचन साक्षात् आत्मानुभूति में कारणभूत नहीं बन सकते, परन्तु साधक अपनी ही सामर्थ्य से आत्मा में आत्मा का अनुभव करता है । पूज्य श्री आनन्दघनजी महाराज ने भी गाया हैं
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अक्षय दर्शन, ज्ञान वैरागे, आत्मानुभूति के लक्षण -- शुभ समस्त शुभ एवं अशुभ विचारों से
आलम्बन-साधन जे त्यागे, पर-परिणति से भागे रे । आनन्दघन प्रभु जागे रे || ध्यान के सतत अभ्यास से मन जब मुक्त हो जाता हैं, चिन्ता एवं स्मृति आदि का भी विलय होता है अर्थात् उन्मनी भाव आ जाता है, तब "निष्कल तत्व" प्रकट होता है अर्थात् अनुभव ज्ञान होता है ।
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