________________
११० सर्वज्ञ कथित: परम सामायिक धर्म
करने से पूर्व उस प्रकार के प्रबल ध्यान आदि के वेग के लिए पूर्वाभ्यास होना अनिवार्य है ।
वर्तमान में आलम्बन योग - यद्यपि मुख्यतया तो परतत्व के लक्ष्यवेध के अभिमुख जो "सामर्थ्ययोग" है वही "निरालम्बनयोग" है, फिर भी उससे पूर्व होने वाले परमात्म गुणों के ध्यान को भी ( मुख्य निरालम्बन ध्यान का प्रापक तथा परतत्व दर्शन की इच्छारूप एक ही ध्येय में ध्यान रूप में परिणमित शक्ति के योग से) "अनालम्बन योग" कहते हैं, अर्थात् श्रेणी के प्रारम्भ से ही शुक्लध्यान का अंशरूप निरालम्बनयोग होता है । इतना ही नहीं, परन्तु सातवें गुणस्थानक में अप्रमत्त मुनि को भी अमुक अंश में होता है ।
अवस्थात्रयी की भावना में निमग्न बने साधक को सिद्ध परमात्मा के गुणों के प्रणिधान के समय भी अनालम्बन योग होता है, अथवा संसारी मनुष्य के ( व्यवहार-नय-मान्य) औपाधिक स्वरूप को गौण मान कर शुद्ध निश्चय-नय-मान्य शुद्ध आत्म-स्वरूप की विभावना करना भी निरालम्बन ध्यान का ही प्रकार है ।
आत्मज्ञान अनुभव निरालम्बन ध्यान (योग) का एक अंश है और यह निरालम्बन ध्यान ही मोह का क्षय करने में समर्थ होता है, उसके for मोह का मूल से नाश होना सम्भव नहीं है । कहा भी है कि - "जो अरिहन्त आदि को द्रव्य-गुण- पर्याय से जानते हैं, वे अपनी आत्मा को भी अवश्य जानते हैं, जिससे उनका मोह नष्ट होता है ।"
अरिहन्त परमात्मा का स्वरूप शोधित स्वर्ण के समान अत्यन्त निर्मल है । उनका ज्ञान होने से समस्त आत्माओं के शुद्ध, निर्मल स्वरूप का ज्ञान होता है ।
द्रव्य अन्वय स्वरूप है, गुण अन्वय का विशेषण है और पर्याय अन्वय के भेद - प्रकार हैं ।
समस्त प्रकार से शुद्ध अरिहन्त परमात्मा के स्वरूप का विचार करने से द्रव्य-गुण-पर्याय स्वरूप अपनी आत्मा का भी साधक ( स्व मन से ) अनुभव कर सकता है, जिसकी रीति निम्नलिखित है
(१) यह चेतन है, ऐसा अन्वय " द्रव्य" है ।
(२) द्रव्य (अन्वय) का आश्रित " चैतन्य" विशेषण "गुण" है । (३) समय मात्र के काल परिणाम से परस्पर भिन्न अन्वय द्रव्य के
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org