Book Title: Sarvagna Kathit Param Samayik Dharm
Author(s): Kalapurnsuri
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 139
________________ ११४ सर्वज्ञ कथित : परम सामायिक धर्म अधिकाधिक स्थिरता प्राप्त करता जाता हैं, त्यों-त्यों उसे कर्म कलंक से रहित, निष्कल, निर्मल, आत्म-तत्व की अनुभूति होती रहती है । उस समय सांस का समूल उन्मूलन करता हुआ वह योगी "मुक्तात्मा" की तरह सुशोभित होता है। • लय अवस्था के सर्वोच्च शिखर पर पहुँचा हुआ योगी सिद्धि के दिव्य योग का आंशिक अनुभवास्वादन करता होने से वह सिद्धों से किसी प्रकार निम्न कोटि का नहीं है, इस कारण ही तो वह मुक्ति की अभिलाषा से भी निवृत्त हो जाता है । अनुभव-योगी के उद्गार - मोक्ष प्राप्त हो अथवा न हो, मुझे इसकी तनिक भी चिन्ता नहीं है, क्योंकि मुक्ति में प्राप्त होने वाले परमानन्द के सुख का व्यञ्जन साक्षात् रूप से मुझे इस जीवन में आस्वादन करने को मिला है, जिसके समक्ष तीनों लोकों के भौतिक सुख तुच्छ प्रतीत होते हैं ।" इस परमानन्द के अनुभव में लीन होने पर " मुक्ति" प्राप्त करने की इच्छा भी विलीन हो जाती हैं, फिर अन्य इच्छा-महेच्छाओं की तो बात ही क्या है ? उन्मनी भाव के प्रभाव से उत्पन्न आत्मानुभूति के परमानन्द की मधुरता के समक्ष पूर्णचन्द्र की शीतलता अथवा अमृत की मधुरता भी सर्वथा फीकी लगती है । इस आत्मानुभूति की अवस्था का सतत अभ्यास होने पर क्रमशः शुक्लध्यान, क्षपकश्रेणी, केवलज्ञान और अन्त में निष्क्रिय अवस्था ( योगनिरोध) प्राप्त होने पर मोक्ष के शाश्वत मुख की प्राप्ति होती है, अर्थात् आत्मा की सच्चिदानन्दमय पूर्णता खिल उठती है । सम्म सामायिक के पूर्वोक्त स्वरूप एवं फल के साथ आत्मानुभवदशा के स्वरूप एवं फल का समन्वय करने पर दोनों की समानता ज्ञात हुए बिना नहीं रहती । सम्म सामायिक में भी ज्ञान, दर्शन और चारित्र के परिणामों की एकता (एकरूपता) होने पर आत्मा के सहज स्वभाव का अनुभव होता है, अर्थात् सम्म सामायिक अनुभवदशा स्वरूप है, जिससे अनुभव की समस्त कक्षाओं का भी उसमें समावेश हो जाता है । सामायिक एवं प्रवचनमाता -पाँच समिति और तीन गुप्ति ये चारित्राचार के आठ प्रकार हैं । संयमरूपी बालक की जन्मदाता होने से, उसका पालन-पोषण और उसकी रक्षा करने वाली होने से उन्हें "माता" Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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