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सामायिक सूत्र : शब्दार्थ एवं विवेचना ६७
धर्म का परम रहस्य, सर्वस्व सार अथवा धर्म की मूलभूत नींव एकमात्र “जिनागम" है। जिनागम द्वारा बताई राह पर प्रयाण किये बिना समता अथवा मुक्ति कदापि प्राप्त नहीं हो सकती ।
प्रश्न - समस्त अनुष्ठानों को गौण मान कर आगम को इतनी अधिक प्रधानता देने का क्या कारण है ?
समाधान -- इस विश्व में एक जिनागम के द्वारा ही समस्त भव्यात्माओं को इतनी भव्य प्रेरणा प्राप्त होती है कि जिससे भव्य जीव शुभ प्रवृत्ति करने और अशुभ (हिंसा आदि) से निवृत्त होने का प्रयास करते हैं। शुभ के लिए प्रेरक और अशुभ से निवर्तक होने से "जिनागम" को प्रधानता दी गई है।
प्रश्न - "जिनागम" की इतनी अपूर्व महिमा क्यों है ?
समाधान - "जिनागम" तत्त्रतः जिनस्वरूप है, जिनेश्वर की वाणी ( उपदेश ) जिनेश्वर तुल्य है । उसकी आराधना, अर्थात् आगम-कथित अनुष्ठान के सेवन से ही समस्त प्रकार की सिद्धियाँ सिद्ध होती हैं । इस प्रकार की अटूट श्रद्धा से सम्मानपूर्वक शास्त्र वचनों का पालन करने से अपने हृदय में जिन वचन के स्वरूप में तत्त्वतः जिनेश्वर भगवान ही विराजमान होते हैं ।
अचिन्त्य चिन्तामणि जिनेश्वर भगवान ही समस्त आत्माओं के समस्त शुभ मनोरथ पूर्ण करने वाले हैं । उनके द्वारा कथित आगम-ग्रन्थों के अनुसार जीवन यापन करने वाले सचमुच जिनेश्वर भगवान के आज्ञापालक हैं । जिनाज्ञा के पालक भव्यात्मा को आगम एवं उनके प्रणेता के प्रति अखण्ड आदर भाव होने से "समरस" की प्राप्ति होती है जो योगशास्त्र में " समापत्ति" कहलाती है ।
" समापत्ति" के समय ध्याता को ध्यान के द्वारा ध्येय के साथ तन्मयता हो जाती है, "मुझमें भी ऐसा ही परमात्म स्वरूप विद्यमान है " कि "वह परमात्मा मैं ही हूँ" इस प्रकार के भेदरहित भाव से युक्त साधक को ही समापत्ति (समरस) की प्राप्ति होती है, जो महायोगियों की माता कहलाती है और वह मोक्ष-सुख के अपूर्व फल का उपहार प्रदान करने वाली है ।
यह " समापत्ति" ( समरस ) " सम सामायिक" स्वरूप है । उसके निरन्तर सेवन से अनालम्बनयोगरूप "सम सामायिक" प्रकट होती है जिसके द्वारा क्रमशः केवलज्ञान एवं मोक्ष-पद प्राप्त होता है ।
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