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सामायिक सूत्र : शब्दार्थ एवं विवेचना
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भिन्न-भिन्न नय परस्पर वाद-विवाद की विडम्बना से व्याकुल होते हैं, परन्तु मध्यस्थता के सुख का आस्वादन करने वाला ज्ञानी समस्त नयों का आश्रित होता है।
विशेष रहित सामान्य से निर्दिष्ट वचन एकान्त से अप्रमाणभूत अथवा एकान्त से प्रमाणभूत नहीं है, जिससे पर-मत के सिद्धान्तों के सद्वचन भी विषय के परिशोधन से प्रमाणभूत हो सकते हैं।
__षोडशक' में भी कहा है कि अन्य शास्त्रों के द्वारा प्ररूपित विषयों से भी द्वष करना उचित नहीं है, परन्तु उक्त विषय पर यत्नपूर्वक चिन्तन करना चाहिये; क्योंकि जिन-प्रवचन से भिन्न अन्य दर्शनों की समस्त मान्यताएँ सद्वचन नहीं है, परन्तु जो मान्यताएं प्रवचन के अनुसार होती हैं वे ही सद्वचन हैं। जिस प्रकार अन्य दर्शन का वचन विषय परिबोधक नय से योजित हो तो वह भी अप्रमाणभूत हो सकता है। इस प्रकार स्याद्वाद की योजना से समस्त नयों का रहस्य ज्ञात होता है। जो व्यक्ति सिद्धान्तों का रहस्य ज्ञात किये बिना केवल सूत्र के अक्षर ज्ञान का ही अनुकरण करता है, उसका तप, संयम आदि अनुष्ठान प्रायः अज्ञान-तप ही माना जायेगा।
__समस्त नयों के ज्ञाता मुनि निश्चय, व्यवहार अथवा ज्ञान-क्रिया के विषय में एक पक्षीय आग्रह को छोड़ कर ज्ञान-गरिष्ठ शुद्ध भूमिका पर आरूढ़ होकर केवल पूर्ण स्वरूप का लक्ष्य रखकर परमानन्द का अनुभव करते हैं । इस प्रकार समस्य नय विषयक माध्यस्थ भो चित्त को प्रशान्त करने में सहायक होते हैं।
आत्म-चिन्तन एवं कर्म-विपाक के चिन्तन से भी समभाव प्राप्त किया जा सकता है। विश्व में दृष्टिगोचर होती विविधता एवं विचित्रता का कारण केवल कर्म है। प्रत्येक जीव स्वकृत कर्मवश होकर शुभ-अशुभ फल भोगता है। कर्म-परतन्त्र जीवों के प्रति मध्यस्थ पुरुष कदापि राग अथवा द्वष नहीं रखते, परन्तु कर्म की विचित्रता का विचार करके सदा समभाव रखते हैं।
कर्माधीन जीव को इस संसार में राग-द्वेष की वृत्तियाँ उत्पन्न हो जायें ऐसे अनेक प्रसंग एवं निमित्त प्राप्त होते हैं, परन्तु यदि वित्त में शास्त्र ज्ञान के भाव भरे हुए हों, सद्गुरु की उपासना करके विधिपूर्वक शास्त्राध्ययन किया हआ हो, उसके रहस्यों का गढ़ ज्ञान प्राप्त किया हआ हो तो कोई भी प्रसंग अथवा निमित्त चित्त को चंचल वनाने में समर्थ नहीं होता।
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