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सामायिक सूत्र : शब्दार्थ एवं विवेचना ८१
(५) अपयश भय - लोक में अपकीर्ति होने का भय ।
(६) आजीविका भय - जीवन - निर्वाह, परिवार पोषण आदि की चिन्ता का भय |
(७) मृत्यु भय - मरने का भय ।
ये सातों प्रकार के भय इस लोक से सम्बन्धित हैं और भव का भय परलोक से सम्बन्धित है ।
सम्पूर्ण विश्व के जीवों पर ये दोनों प्रकार के भय झूम रहे हैं । भय की कल्पना मात्र से ही अनेक जीव आकुल व्याकुल हो जाते हैं, मृत्यु के मुंह में से बचने का सभी लोग यथासम्भव पुरुषार्थ करते हैं । इन दोनों प्रकार के भयों का सर्वथा नाश करने के ठोस उपाय गुरुदेव के उपदेश के द्वारा ज्ञात होते हैं | सच्चे सद्गुरु के बिना कोई महाभयों से मुक्त होने का सच्चा मार्ग बता नहीं सकते ।
इस प्रकार सम्पूर्ण विश्व के जीवों को अभयदान एवं सुख देने वाले तथा उनका कल्याण करने वाले ही "सद्गुरु" कहलाते हैं और वे विश्वबन्धु तीर्थंकर परमात्मा और उनके आज्ञा-पालक आचार्य भगवान आदि ही हो सकते हैं ।
उपर्युक्त गुणों के धारक गुरु की सेवा करने से भय अथवा भय का अन्त आ सकता है । यह गुरु-सेवा क्रमशः गुरुकुल - वास, गुरु-पारतन्त्र्य एवं उचित विनय आदि से होती है ।
गुरुकुल वास का अर्थ है गुरु के साथ रहना, भोजन, शयन, प्रतिक्रमण, विहार आदि क्रिया गुरु के साथ करना अथवा उनकी आज्ञानुसार अथवा उनकी निगरानी में क्रिया करना । शास्त्रों में गुरुकुल-वास का अत्यन्त महत्व बताया गया है । गुरु की निश्रा में रहने से नित्य श्रुतज्ञान की वृद्धि होती है, सम्यग् दर्शन आदि गुण निर्मल एवं स्थायी होते जाते हैं और चारित्र की विशुद्धि एवं स्थिरता में वृद्धि होती जाती है । संक्षेप में गुरु सामोप्य से श्रुत, सम्यक्त्व एवं चारित्र सामायिक की प्राप्ति, शुद्धि, वृद्धि एवं स्थिरता होती है। गुरु का सतत सान्निध्य ही सापेक्ष यतिधर्म कहलाता है । गुरु-कुल-वास समस्त सदाचारों का मूल है ।
रूप से
गुरु पारतंत्र्य का अर्थ है सम्पूर्ण समर्पित भाव, अपना जीवन संपूर्ण गुरु को सौंप देना, उनकी आज्ञा को ही जीवन मन्त्र बनाना । गुरु के साथ रहने पर भी यदि व्यवहार स्वच्छंदतापूर्ण हो, गुरु की आज्ञा का पालन करने में उपेक्षा होती हो, आँख-मिचौनी होती हो तो
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