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सामायिक सूत्र : शब्दार्थ एवं विवेचना ८५
परमात्मा की साक्षी रखने से व्रत में स्थिरता आती है । सामायिक व्रत ग्रहण करने वाले व्यक्ति को सहज ही ऐसा विचार आता है कि सर्वज्ञ भगवन्तों की साक्षी में मैंने यह सामायिक स्वीकार की है। अतः इसका पालन करने में मुझे अत्यन्त ही सावधानी रखनी चाहिये, किसी प्रकार का कोई दूषण न लगे उसकी सावधानी रखनी चाहिये । वह इतनी प्रबल श्रद्धा एवं दृढ़ता के साथ सामायिक व्रत का उत्तम प्रकार से पालन करने के लिए तत्पर होता है ।
चालू व्यवहार में भी गुरुजनों की साक्षी से उनको देखरेख में होने वाले कार्य में किसी प्रकार की कमी रह जाये तो लज्जाजनक माना जाता है । उनके प्रति सम्मान होने से उनका भय भी रहता है । इसी प्रकार से सामायिक व्रत का पालन करने में तलर साधक को ज्ञानी भगवानों से लज्जा एवं भीति प्रतीत होती है । इस कारण उत्तम प्रकार से सावधानी - पूर्वक व्रत पालन करने की सक्रिय लगन साधक के हृदय में निरन्तर रमण करती होनी चाहिये ।
सर्वज्ञ वीतराग शासन की ही यह बलिहारी है कि उस शासन- रसिक आराधक को सर्वत्र सब प्रकार से सुरक्षा प्राप्त होती ही रहती है, क्योंकि निरतिचारपूर्वक शुभ भाव से सामायिक करने वाले साधक के हृदय में अनन्तज्ञानी भगवन्तों के प्रति अप्रतिम पूज्य भाव होता है; जिससे वह उनके अनुग्रह का पात्र बना रहता है और परमात्मा की कृपा से बढ़कर सुरक्षा इस विश्व में कोई है ही नहीं ।
प्रश्न- व्यवहार में दो व्यक्तियों के मध्य चलते व्यापार आदि में दलाल आदि तीसरे मनुष्य की प्रत्यक्ष उपस्थिति होतो है । कदाचित् किसी समय यदि सौदे में काई आपत्ति उत्पन्न हो तो वह दलाल साक्षी देता है। कि मेरी उपस्थिति में यह सौदा अमुक प्रकार से हुआ था और वह उसके लिए प्रमाण दे देता है । इस कारण लोगों में अपयश होने के भय से अथवा सज्जन मनुष्यों को लज्जा से भी मनुष्य भूल करने में हिचकिचाते हैं । जबकि जिनेश्वर भगवान्, सिद्ध अथवा अतिशय ज्ञानी महात्मा तो साधक
दृष्टि पथ में आते ही नहीं हैं, तो फिर उनकी लज्जा अथवा भीति के द्वारा साधक अपनी सामायिक आदि की साधना में स्थिरता कैसे प्राप्त कर सकता है ?
समाधान - सिद्धशिला पर सदा के लिए विराजमान समस्त सिद्ध भगवान तथा कम से कम बोस तोर्थंकर परमात्मा और दो करोड़ केवली
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