________________
सामायिक सूत्र : शब्दार्थ एवं विवेचना ८३
पाँच परमेष्ठी ही है । अतः ज्ञान आदि गुणों के अभिलाषी व्यक्ति को तो पाँचों की नमस्कार आदि के द्वारा अहर्निश पूजा करनी चाहिए ।"
सामायिक ज्ञानमय है । उसके अभिलाषी व्यक्ति को भी अरिहंत आदि की सेवा करनी ही चाहिये ।
"भन्ते" पद का रहस्यार्थ कहो अथवा समस्त शास्त्रों का सार कहो, वह यही है कि परमात्म-भक्ति और गुरु-भक्ति में तन्मयता सिद्ध हो तो ही "सामायिक" (समाधि समापत्ति) सिद्ध हो सकती है । इस " शास्त्र - वाचन" की विशेष स्पष्टता ज्यों-ज्यों हम आगे पढ़ेंगे त्यों-त्यों होती रहेगी ।
प्रश्न - " भन्ते" पद से गुरु का ग्रहण तो हो जाता है, परन्तु अरिहन्त का ग्रहण कैसे होगा ?
समाधान' - महावीर भगवान आदि अरिहन्त जिस प्रकार अष्ट महाप्रातिहार्य आदि अतिशयों के कारण “जिनेश्वर" कहलाते हैं, उसी प्रकार से तत्व के उपदेशक होने से गुरु (आचार्य) भी कहलाते हैं । अतः "भन्ते" पद से दोनों का ग्रहण हुआ है । समस्त अरिहन्त परमात्मा तत्वोपदेश के द्वारा अपने गणधर आदि शिष्यों को सामायिक का दान करते हैं । उस समय उनके शिष्य "भन्ते" पद से भगवान को ही सम्बोधित करते हैं । यह बात सर्वत्र प्रसिद्ध है ।
" भन्ते" पद के द्वारा उपयोग का महत्व - "भन्ते" आत्मा के निमन्त्रण के अर्थ में भी लिया जा सकता है। अतः सामायिक ग्रहण करने वाला व्यक्ति अपनी आत्मा को सम्बोधित करके कहता है कि - " हे जीव ! मैं सामायिक करता हूँ ।" आत्मा को सम्बोधित करके किया गया यह प्रयोग समस्त शेष क्रियाओं का त्याग करके एक "सामायिक" को क्रिया में ही उपयोग रखने का सूचित करता है ।
शास्त्र द्वारा कथित अनुष्ठान करते समय भी परस्पर एक दूसरे अनुष्ठान का विघात न हो, परन्तु प्रारब्ध क्रिया में ही उपयोग रहे, वैसा व्यवहार करना चाहिये ।
"सामायिक" आदि अनुष्ठान करते समय आत्मा को उसमें ही लोन कर देना चाहिये | उपयोगपूर्वक को गई क्रिया ही भावस्वरूप होती है । उपयोगरहित क्रिया 'द्रव्य क्रिया" कहलाती है ।
१ सजिणो जिणाइ सयओ सो चेव गुरु गुरूवएसाओ ।
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org