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६६ सर्वज्ञ कथित : परम सामायिक धर्म जो सदा महाविदेह क्षेत्र में विचरते ही रहते हैं, वे समस्त सर्वज्ञ, सर्वदर्शी महापुरुष एक साथ विश्व के प्रत्येक चराचर पदार्थ को प्रत्यक्ष रूप से देखते ही रहते हैं।
सामायिक करने वाले साधक को यह बात विदित ही होती है तथा सर्वविरति सामायिक के धारक मुनि तो दिन में नौ बार "करेमि भन्ते" (सामायिक प्रतिज्ञा) सत्र का उच्चारण करते हैं, अतः उन्हें तो इस बात का ध्यान होता ही है कि अनन्त सर्वज्ञ परमात्मा तो अपनी ज्ञान-चक्षुओं से मेरी सामायिक की साधना प्रत्यक्ष रूप से देख ही रहे हैं। मेरी चर्म-चक्षु चाहे उन अतीन्द्रिय ज्ञानी भगवन्तों को नहीं देख सकती, परन्तु मुझे प्राप्त श्रुतज्ञान एवं श्रद्धा के बल से यह तो अच्छी तरह ज्ञात किया जा सकता है कि मैं सर्वज्ञों की निश्रा में ही बैठा हुआ है। सर्वज्ञ अपनी ज्ञान-चक्षुओं से मुझे देख रहे हैं। बस, यह ज्वलन्त ज्ञान ही साधक को उनका भय एवं लज्जा लगाकर सदा जागृत रखता है और सामायिक आदि की साधना में स्थिरता लाता है।
आर्य देश का संस्कारी मानव किसी के देखते हुए हिंसा आदि क्रूर पाप-कृत्य करने में भी सकुचाता है, लज्जा एवं भय का अनुभव करता है। इसी प्रकार से साधु अथवा श्रावक सामायिक आदि आवश्यक धर्मक्रियाओं में भूल करते समय केवलज्ञानी भगवानों से लज्जित एवं भयभीत हों तो क्या आश्चर्य है ? जिन मनुष्यों को लोगों की लज्जा नहीं है, पाप का भय नहीं है, ऐसे निर्लज्ज, निर्दय मनुष्य जिस प्रकार खुले आम क्रूर पाप-कृत्य करने में तनिक भी नहीं हिचकिचाते, तनिक भी संकोच का अनुभव नहीं करते, उसी प्रकार से श्रद्धाहीन व्यक्ति को सर्वज्ञ शास्त्रों के प्रति सच्ची रुचि अथवा सच्ची श्रद्धा नहीं होने से सर्वज्ञोपदिष्ट सामायिक आदि धर्म की आराधना में अनेक दोष करने में भी सर्वज्ञ परमात्मा से लज्जा अथवा भीति नहीं प्रतीत होती।
वस्तुतः तो ऐसे श्रद्धाहीन, मनुष्य धर्म के अधिकारी ही नहीं हैं। "भन्ते" पद के उपयुक्त रहस्यार्थ का अपूर्व लाभ श्रद्धाहीन व्यक्ति को कैसे प्राप्त हो सकता है ? जिस प्रकार असाध्य रोगी का रोग नष्ट न हो तो उसमें वैद्य अथवा औषधि का कोई दोष नहीं है, उसी प्रकार से श्रद्धाहीन व्यक्ति को शास्त्र अथवा शास्त्राचार की कोई बात लाभदायक न हो तो उस में उनका क्या दोष?
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