Book Title: Sarvagna Kathit Param Samayik Dharm
Author(s): Kalapurnsuri
Publisher: Prakrit Bharti Academy

Previous | Next

Page 112
________________ सामायिक सूत्र : शब्दार्थ एवं विवेचना ८७ जिस व्यक्ति को निर्मल शास्त्र-चक्षु प्राप्त हुए हैं, उसे तो सम्पूर्ण विश्व के समस्त पदार्थ साक्षात् दृष्टिगोचर होते हैं। परमात्मा का नाम स्मरण करते समय अथवा उनकी पावन प्रतिमा के दर्शन करते समय श्रद्धालु आत्मा तो माक्षात् परमात्मा के दर्शन-मिलन के समान आनन्द का अनुभव करती है। योग्य अधिकारी साधक जब-जब सामायिक को स्वीकार करता है, तब "मैं सर्वज्ञ परमात्मा की साक्षी में सामायिक कर रहा हूँ" यह भाव सदा उसके हृदय में जीवित होता है । "भन्ते" अथवा "भगवन्" शब्दों का उच्चारण करते समय साधक का हृदय पूज्यों के प्रति अप्रतिम सम्मान-भाव से झुक जाता है, सर्वज्ञ भगवन्त के साक्षी भाव का प्रत्यक्ष अनुभव करता है । समस्त मुमुक्षु साधकों को "भन्ते" पद से इस महान रहस्य को समझकर जीवन में उससे साक्षात्कार करने के लिए उत्कंठा रखनी चाहिये। ___ “पाक्षिक सूत्र" में व्रतों को "आलावा" में "अरिहन्त सक्खियं सिद्ध", आदि पद बोले जाते हैं, तथा दैनिक आवश्यक आदि क्रियाओं में तथा "संथारा पोरिसी" में भी "सिद्ध साख आलोयण" पद का उच्चार करके सिद्ध भगवन्तों की साक्षी में आलोचना-क्षमापना करने का विधान है। . प्रत्येक आवश्यक आदि क्रियाओं में "भन्ते" अथवा "इच्छाकारेण संदिसह भगवन् !" आदि पद व्यापक रूप से प्रयुक्त हुए हैं। ये समस्त शास्त्रीय विधान समस्त साधकों को साधना के समय सर्वज्ञ भगवानों के नाम-स्मरण, नमस्कार और ध्यान आदि के द्वारा उनका सतत सान्निध्य रखने का गभित सूचित करते हैं। ____ "सामायिक" आदि प्रत्येक धर्मानुष्ठान की आराधना में परमात्मा की साक्षी की भावना से हृदय उल्लासमय करना चाहिये, जिससे व्रतपालन में स्थिरता उत्पन्न होती है। भन्ते एवं सामायिक-“भन्ते" -भदन्त, कल्याणकारी, सुखकारी सामायिक मैं स्वीकार करता हूँ। प्राकृत व्याकरण की दृष्टि से एकार लाक्षणिक होने से उसका लोप करके, "भन्त सामायिक" सामासिक शब्द प्रयुक्त करके उपयुक्त अर्थ भी ग्रहण किया गया है। नाम, स्थापना अथवा द्रव्य सामायिक श्रेयकारक अथवा सुखदायक नहीं बन सकती, जिससे यहां भाव-सामायिक को ग्रहण करने के लिये "भदन्त" विशेषण का उपयोग हुआ है ।। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194