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सामायिक की विशालता २५ मनःपर्यवज्ञानी देश-विरति के अतिरिक्त तीनों सामायिकों के प्रतिपन्न होते हैं परन्तु प्रतिपद्यमान नहीं होते अथवा तीर्थंकर भगवान मनःपर्यवज्ञान एव सर्व-विरति चारित्र एक साथ प्राप्त करते हैं।
केवल ज्ञान तथा केवल दर्शन में भवस्थ केवली सम्यक्त्व एवं सर्गविरति चारित्र के पूर्व-प्रतिपन्न ही होते हैं, अतः नवीन प्राप्त करना ही नहीं पड़ता।
प्रश्न-सिद्धान्त में तो यह कहा गया है कि समस्त प्रकार की लब्धियों की प्राप्ति साकार उपयोग वालो आत्मा को ही होती हैं, निराकार उपयोग वाली आत्मा को नहीं होती, तो यहाँ निराकार उपयोग में भी चारों सामायिकों की प्राप्ति हो सकती है, यह किस प्रकार हो सकता है ?
उत्तर--उपयुक्त सिद्धान्त का नियम प्रवर्धमान परिणाम वाले जीवों की अपेक्षा से है, अर्थात् नैसे जीव साकार उपयोग में ही समस्त प्रकार की लब्धि एवं सम्यक्त्व आदि सामायिक प्राप्त करते हैं, परन्तु स्थिर परिणाम वाले जीव तो निराकार उपयोग में भी चारों प्रकार की सामायिक प्राप्त कर सकते हैं । इस प्रकार उपर्युक्त विरोध नहीं रहता।
प्रश्न-आपके कथनानुसार निराकार उपयोग में भी यदि लब्धि की उत्पत्ति होती हो, तो आगम ग्रन्थों में यह विधान क्यों किया गया है कि साकार उपयोग वाले को ही लब्धि उत्पन्न होती है ?
उत्तर-इसका कारण यह है कि लब्धियों की प्राप्ति प्रायः प्रवर्धमान-परिणामी जीवों को ही होती है। जोव के स्थिर परिणाम तो औपशमिक सम्यक्त्व आदि की प्राप्ति के समय ही होते हैं। अतः निराकार उपयोग वाले को अत्यन्त हो अल्प समय में लब्धि प्राप्त होती होने से यहाँ उसकी विवक्षा नहीं की गई है।
इस सम्बन्ध में विशेष स्पष्टीकरण करते हुए वृत्तिकार महर्षि एक महत्वपूर्ण निदेश देते हैं कि-'जब आगम ग्रन्थों की कोई भी बात परस्पर विरोधाभास प्रकट करती हो तो उसका सापेक्ष रीति से, स्याद्वाद दष्टि से समन्वय करके दोनों बातों का रहस्य समझने का प्रयास करना चाहिये ।" केवल स्थूल दष्टि से प्रतीत होते विरोध को आपत्तिजनक मान लेने की गम्भीर भूल न हो जाये उसकी विशेष सावधानी रखनी चाहिये, अन्यथा 'उत्सूत्रप्ररूपण' का महान पाप लगे बिना नहीं रहेगा।
वृत्तिकार महर्षि का विशेष स्पष्टीकरण-प्रस्तुत आगम-पंक्ति
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