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सर्वज्ञ कथित: परम सामायिक धर्म
कर्त्ता और उसके साधन ( मन, वचन और काया) ये तीनों आत्मा ही हैं, अर्थात् सामायिक रूप कार्य, उसका कर्त्ता (आत्मा) और उसके करण ये तीनों आत्म-परिणाम रूप होने से एक ही हैं, भिन्न-भिन्न नहीं हैं, क्योंकि सामायिक ( सामान्यतया) ज्ञान, दर्शन और चारित्र स्वरूप है और करण मन-वचन-काया रूप योग है और वे दोनों आत्मा के ही स्वपर्याय हैं ।
प्रश्न – आपकी इस मान्यता के अनुसार तीनों को एक (अभिन्न) मानने में एक बड़ा दोष आयेगा कि सामायिक का नाश होने पर जीव का भी नाश होगा !
समाधान- आपकी आशंका ठीक नहीं है । सामायिक आदि पर्याय का नाश होने पर जीव का नाश नहीं होता, क्योंकि जीव तो उत्पाद-व्ययध्रौव्यस्वरूप अनन्त पर्याय युक्त है । उनमें से एक सामायिक आदि पर्याय का नाश होने पर भी शेष अनन्त पर्यायों से वह सदा स्थिर रहती है ।
केवल आत्मा ही नहीं परन्तु विश्व के समस्त पदार्थ भी उत्पत्ति, विनाश एवं ध्रुव स्वभाव युक्त हैं और इस प्रकार माना जाये तो ही सुखदुःख अथवा बध-मोक्ष आदि की सम्पूर्ण व्यवस्था वास्तविक तौर से घटित हो सकती है, अन्यथा नहीं ।
प्रश्न - तो फिर कर्त्ता आदि कारकों का एकत्व प्राप्त होगा उसका
क्या ?
समाधान - कर्त्ता आदि कारकों का एकत्व परिणाम विवक्षावश से हो सकता है, इसमें कोई दोष जैसी बात नहीं है, जैसे एक ही देवदत्त कटादि का कर्त्ता, दृष्टाओं का कर्म और प्रयोजक करण के रूप में परिणत हो जाये तब करण के रूप में प्रयुक्त होता है, तथा विवक्षावश से भी एक ही वस्तु में अनेक कारकों का प्रयोग होता है । जैसे घड़े का नाश होता है । यहाँ घट विशरण क्रिया के कर्त्ता के रूप में विवक्षित है, तथा विशरण क्रिया के व्याप्य के रूप में विवक्षित हो तो वही घट कर्म हो जाता है और वह घट पर्याय से नष्ट होता है, इस प्रकार करण के रूप में विवक्षित हो तो करण बनता है ।
इस प्रकार एक ही वस्तु विविध अपेक्षा से भिन्न-भिन्न कारकों के रूप में प्रयुक्त होती है, जैसे ज्ञानी पुरुष ( मतिज्ञान आदि से युक्त) स्वसंवेदन रूप उपयोग काल में एक होने पर भी तीन स्वरूप में दृष्टिगोचर होते हैं, (१) ज्ञानी स्वउपयोग में उपयुक्त होने से कर्त्ता, (२) संवेद्यमान रूप में कर्म और (३) ज्ञान से अभिन्न होने के कारण करण ।
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