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४२ सर्वज्ञ कथित : परम सामायिक धर्म ज्ञान एवं केवलदर्शन के पर्यायों की भी विवक्षा है। इस कारण ही इस "सयम श्रेणी" को समस्त आकाश प्रदेश से अनन्त गुनी पर्याय राशि प्रमाण वाली कही गई है। जबकि यहाँ जो पर्याय चारित्र में उपयोगी हैं अर्थात् जिन्हें ग्रहण और धारण किया जा सकता है ऐसे पर्याय की ही विवक्षा की गई है, और उस प्रकार के पर्याय संख्या में अल्प होने से समस्त पर्याय नहीं, परन्तु अमुक पर्याय ही चारित्र के विषयभूत हैं-यह कहा गया है।
___इस प्रकार सामायिक धर्म के विषय की विशालता से सामायिक धर्म की भी व्यापकता प्रतीत होती है, क्योंकि विषय के भेद से विषयी के भी भेद होते हैं । इस "संयम श्रेणी" के स्वरूप को गुरु-गम से समझा जाये तो सामायिक के विषय की व्यापकता का तनिक विशेष ज्ञान हो सकेगा। सामायिक को दुर्लभता
अकल्पनीय महिमामयी, सिद्धि-सुख-दायक सामायिक धर्म की प्राप्ति होना कोई सरल कार्य नहीं है । सामायिक धर्म अत्यन्त ही दुर्लभ है । चारों प्रकार की सामायिक प्राप्ति का महान सद्भाग्य तो एक मात्र मानव की ललाट में ही लिखा गया है, परन्तु यह मानव जन्म प्राप्त होना ही अत्यन्त कठिन है। इसकी दुर्लभता का वर्णन करने के लिए शास्त्रों में दस-दस दृष्टान्त अंकित हैं।
__ मनुष्य-जन्म, आर्य-क्षेत्र, उत्तम जाति, कुल, रूप, आरोग्य, दीर्घ आयु, सद्बुद्धि, सद्धर्म का अवधारण एवं श्रद्धान आदि की प्राप्ति भी दुर्लभ, दुर्लभतर है। तो फिर “सामायिक" की प्राप्ति दुर्लभतम हो तो आश्चर्य ही क्या है ?
___ अनादि-अनन्त काल से इस विराट संसार-सागर में प्रतिभ्रमण करते-करते जीव को उपर्युक्त दुर्लभ भावों की प्राप्ति महापुण्य योग से क्वचित् ही होती है।
दुर्लभ मानव-जन्म आदि उत्तम सामग्री प्राप्त करके भी जो व्यक्ति आत्म-भान भूलकर केवल भौतिक सुखों को प्राप्त करने और उनका उपभोग करने की अंधी दौड़-धूप में पागल हो जाते हैं, उनके हाथों से तो इस अमूल्य मानव-जीवन का अवमूल्यन ही होता है, पुण्यशाली जीवन-धन व्यर्थ नष्ट हो जाता है।
तृषा से पीड़ित कोई व्यक्ति सरोवर के किनारे आने पर भी शीतल, स्वादिष्ट जल-पान करके अपनी तृषा मिटाने के लिए कुछ भी प्रयत्न न करे तो अन्त में घुट-घुट कर काल का ग्रास बनता है; ऐसी ही दुर्दशा मानव
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