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सामायिकी व्यक्ति की संख्या आदि द्वार ५५ सामायिक के भ्रष्ट जोव पुनः कितने समय में सामायिक प्राप्त कर सकते हैं ? आदि बातों पर आगामी द्वारों में प्रकाश डाला जायेगा।
सान्तर द्वार-जीव एक बार सम्यक्त्व आदि प्राप्त करके उससे च्युत होने पर पुनः जितने समय में सम्यक्त्व आदि प्राप्त करता है, उस मध्य काल को “अन्तर" कहते हैं। सामान्य अक्षरात्मक मिथ्याश्रुत का जघन्य से अन्त. मुहूर्त का एवं उत्कृष्ट से अनन्त काल का ‘‘अन्तर" होता है।
जो दोइन्द्रिय आदि जीव श्रुत (अक्षरात्मक) प्राप्त करके मृत्यु के पश्चात् पृथ्वी आदि में उत्पन्न होकर केवल अन्तर्मुहूर्त काल तक रहकर पुनः दोद्रन्द्रियों में आये और श्रुत को प्राप्त करे उस पर यह जघन्य अन्तर लागू होता है।
उत्कृष्ट अन्तर-कुछ दोइन्द्रिय जीव मृत्यु के पश्चात् पाँचों स्थावर में पुनः पुनः जन्म-मरण करते रहें तो उन्हें अनन्त काल के पश्चात् दोइन्द्रिय आदि में उत्पन्न होने पर पुनः श्रुत की प्राप्ति होती है।
शेष सम्यक्त्व, देशविरति एवं सर्वविरति सामायिक में जवन्य से अन्तर्मुहूर्त एवं उत्कृष्ट से देशोन अर्द्ध पुद्गल परावर्तन काल "अन्तर". होता है।
यह "अन्तर" मर्यादा एक जीव की अपेक्षा से समझनी चाहिए। समस्त जीवों के अनुसार तो 'अन्तर" है ही नहीं।
.. जो व्यक्ति सम्यक्त्व आदि प्राप्त करके अन्तर्मुहूर्त के पश्चात् तथाविध विशुद्ध परिणाम से पतित होकर पुनः अन्तर्मुहर्त में ही उस प्रकार का परिणाम प्राप्त कर लें उन पर यह जघन्य अन्तर घटित हो सकता है।
. कोई बहुलकर्मी जीव सम्यक्त्व आदि प्राप्त करके भी तीर्थंकर, प्रवचन, श्रत, आचार्य अथवा गणधर आदि महापुरुषों की घोर आशातना करके सम्यक्त्व आदि से भ्रष्ट होता है और अधिकतर भव-भ्रमण करके अपार्धपुद्गलपरावर्तन काल के पश्चात पुनः सम्यक्त्व आदि प्राप्त करता है । ऐसे जीवों की अपेक्षा से यह उत्कृष्ट अन्तर घटित किया जा सकता है ।
अविरह द्वार-समस्त लोक में सामायिक की निरन्तर प्राप्ति कितने समय तक हो सकती है-यह बात प्रस्तुत द्वार में बताई जाती है।
सम्यक्त्व, श्रुत और देशविरति सामायिक को प्राप्त करने वाले उत्कृष्ट से आवलिका के असंख्य भाग-प्रमाण समय तक सतत होते हैं। तत्पश्चात् अवश्य विरह (अन्तर) होता है।
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