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सामायिक का विषय ४५ करुणानिधान भगवान महावीर उस सांप को बोध देने के लिये उसके बिल के समीप आकर कायोत्सर्ग ध्यान में लीन हो गये। मानव की गन्ध आते ही चण्डकौशिक बिल में से बाहर आया और उसने भगवान की देह पर विषाक्त दृष्टि डाली, परन्तु उन पर उसका कोई प्रभाव नहीं होता देखकर क्रोधान्ध सांप ने भगवान के चरण में कातिल डंक मारा और उसका परिणाम भी उसके अनुमान से सर्वथा विपरीत हुआ देखकर उसे अत्यन्त आश्चर्य हुआ।
भगवान के चरण से रक्त के बदले दूध की धारा प्रवाहित होती देखकर वह विचार में पड़ गया, “कौन होगा यह प्रभावशाली महापुरुष ?"
तब परमात्मा ने अपनी मधुर ध्वनि में कहा, "बुज्झ, बुज्झ, चण्डकौशिक !"
प्रभु के इतने शब्दों ने ही उसके मोह का विष उतारने में गारुड़िक मन्त्र का कार्य किया। उसके तीव्र रसयुक्त प्रगाढ़ मोहनीय कर्म की स्थिति का क्षय हुआ और चण्डकौशिक को सम्यक्त्व, श्रुत तथा देशविरति सामायिक का महान लाभ प्राप्त हो गया।
इस प्रकार कर्म-क्षय से सामायिक धर्म की प्राप्ति होती है।
(५) कर्म का उपशम–कोई अनादि मिथ्यादृष्टि आत्मा नदी-धोलपाषाण की तरह आयुष्य कर्म के अतिरिक्त शेष सातों कर्मों की स्थिति को अंतःकोडाकोडी सागरोपम को करने के रूप में “यथाप्रवृत्तिकरण" करे वहाँ उसे सद्गुरु का समागम आदि शुभ निमित्त प्राप्त होने पर वह रागद्वष की तीव्र ग्रन्थि को भेद कर अपूर्वकरण तथा अनिवृत्तिकरण की प्रक्रिया में से पार होकर अंतरकरण में प्रविष्ट होता है, जहाँ मिथ्यात्वमोहनीय कर्म का सर्वथा उपशम हो चुका होता है, अर्थात् मिथ्यात्व का एक भी दलिक वेदना नहीं पड़ता। ऐसे अन्तरकरण में प्रविष्ट होते ही सम्यक्त्व सामायिक की प्राप्ति होती है।
शास्त्रों में कर्म के उपशम से सामायिक धर्म की प्राप्ति के लिये अंगर्षि मुनि का दृष्टान्त आता है।
(६) मन, वचन, काया की प्रशस्त प्रवृत्ति-जब हलुकर्मी आत्मा मन, वचन, काया को अशुभ प्रवृत्ति में से निवृत्त करके शुभ प्रवृत्ति में प्रवृत्त करती है तब उसके शुभ कर्मों का अनुबन्ध शिथिल हो जाता है और शुभ निमित्तों के समागम से कर्म का क्षयोपशम आदि होने पर सम्यक्त्व
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