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सामायिक की विशालता ३७ पूर्वप्रतिपन्न तीनों प्रकार के परिणाम में होती है, अर्थात् सामायिक प्राप्त होने के पश्चात् उसमें हो स्थित जोव के शुभ परिणाम में ज्वार-भाटा हो सकता है।
आत्म-परिणामों की वृद्धि एवं हानि का काल जघन्य से एक समय और उत्कृष्ट से अतमुहूर्त का हो है। अतः आगे एकधारी विशुद्धि अथवा संक्लेश नहीं टिक सकते, परन्तु उनमें तनिक परिवर्तन अवश्य होता है।
अवस्थित परिणाम अर्थात् वृद्धि हानि का मध्य काल, अर्थात् वृद्धि अथवा हानि वाले अध्यवसाय स्थान में आत्मा स्थिर रहे तो अधिक से अधिक आठ समय तक रह सकता है, तत्पश्चात् अथवा तो वर्धमान परिणामी बनती है अथवा होयमान परिणामो बन तो है।
परिणाम की इस परावृत्ति का हेतु उसका तथा-स्वभाव ही है, अन्य कोई कारण नहीं है।
(२७) वेदना द्वार-शाता एवं अशाता रूप द्विविध वेदना में जीव चार में से कोई भी सामायिक प्राप्त कर सकता है, तथा पूर्वप्रतिपन्न भो होता है।
इस द्वार से सूचित होता है कि केवल शारीरिक अनुकूलता अथवा प्रतिकूलता सामायिक की प्राप्ति में कारणभूत नहीं है। भयंकर वेदना को समभाव से सहन करते हए मुनि केवलज्ञान प्राप्त करते हैं और नरक में घोर यातनाओं से पीड़ित नारकीय जीव भी सम्यक्त्व आदि प्राप्त कर सकते हैं।
(२८) समुद्घात द्वार-एक साथ प्रबलतापूर्वक कर्म का घात करना "समुद्घात" कहलाता है । इसके सात भेद हैं
(१) वेदना, (२) कषाय, (३) मृत्यु, (४) वैक्रिय, (५) तेजस, (६) आहारक और (७) केवलो समुद्घात ।
समुद्घात करते समय जीव वेदना के साथ तन्मयता प्राप्त करता है, जिससे वह एक भो नवीन सामायिक प्राप्त नहीं कर सकता । पूर्वप्रतिपन्न दो अथवा तीन सामायिकों का होता है, जिसमें "केवलो समुद्घात" में सम्यक्त्व एवं चारित्र सामायिक होतो हैं और शेष समुद्घात में सम्यक्त्व, श्रुत एवं देशविरति अथवा सर्वविरति दो में से एक-इस तरह तीन सामायिक होती हैं।
समुद्घात नहीं करने वाला जोव किसी भी सामायिक का प्रति. पद्यमान और पूर्वप्रतिपन्न होता है।
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