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सामायिक की विशालता
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आदि श्रुत के चार सामान्य नाम बताये गये हैं - ( १ ) अध्ययन, (२) अक्षीण, (३) आय और (४) क्षपणा |
उसमें "अक्षीण" की व्याख्या है कि जो कदापि क्षीण न हो । "आगम से भाव अक्षीण" उसे कहते हैं कि जो ज्ञाता उपयुक्त हो । इस पंक्ति का रहस्य प्रकट करते हुए गीतार्थ ज्ञानी महर्षि कहते हैं कि
चतुर्दश पूर्व के पारगामी महात्माओं का उपयोग जब आगम की पर्यालोचना में जुड़ता है, तब " अन्तर्मुहूतं" जितने समय में जिस विशुद्ध अर्थज्ञान (उपयोग पर्यायों) की विविध स्फुरणाएँ उत्पन्न होती हैं, वे संख्यातीत होती हैं अर्थात् अनन्त होती हैं। उनमें से यदि प्रत्येक बार एक-एक पर्याय का अपहार किया जाये तो अनन्त कालचक्र तक भी उक्त अपहरण की क्रिया पूर्ण नहीं हो सकती । इस कारण ही सामायिक आदि श्रुत “अक्षोण” कहलाते हैं।
इससे सामायिक की अक्षीणता एवं उपयोग का महत्व तथा दोनों का पारस्परिक गाढ़ सम्बन्ध कैसा है, यह सरलता से समझ में आ जाता है । सामायिक एवं उपयोग की एकता
उपयोग को उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त की ही है और सामायिक का काल भी उपयोग की अपेक्षा से इतना ही माना गया है।
सामायिक की प्राप्ति एवं अस्तित्व विशुद्ध उपयोग में होता है, अर्थात् सामायिक में विशुद्ध उपयोग अवश्य होता है । इस प्रकार दोनों कथचिद् अभिन्न हैं ।
श्रुतज्ञान का एकाग्र उपयोग श्रुत सामायिक है ।
सम्यग् श्रद्धा में एकाग्र उपयोग सम्यक्त्व सामायिक है ।
देशविरति के परिणाम में एकाग्र उपयोग देशविरति सामायिक है । सर्वविरति के परिणाम में एकाग्र उपयोग सर्वविरति सामायिक है ।
इस सबका तात्पर्य यही है कि समता परिणाम उपयोगयुक्त हो तो हो सामायिक कहलायेगा और उपयोग यदि समता परिणामयुक्त हो तो ही विशुद्ध उपयोग कहलाता है । इस प्रकार उपयोग सामायिकमय है और सामायिक उपयोगमय है । ये दोनों परस्पर एक-दूसरे से संकलित हैं । क्षण भर के लिये भी ये दोनों एक-दूसरे से अलग नहीं रह सकते; फिर भी विवक्षा- भेद से उनका स्वरूप भिन्न-भिन्न प्रकार से बताया गया है । परमार्थ से वे दोनों आत्म-परिणाम स्वरूप होने से एक ही हैं, उपयोगमय आत्मा सामायिक है |
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