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ध्यान
३० सर्वज्ञ कथित : परम सामायिक धर्म
इस प्रकार ध्यान अथवा आवश्यक क्रिया 'लोकोत्तर-भाव क्रिया' बन जाती है जो शीघ्र फलदायिनी होती है । इस क्रिया को 'अमृत-क्रिया' भी कहा जा सकता है।
उपयोग और ध्यान-उपयोग और ध्यान इन दोनों में कितना साम्य है, उस पर शास्त्रीय पाठों के निर्देश सहित चिन्तन किया जाता है जिससे जिज्ञासुओं को "उपयोग" की रहस्यपूर्ण विशिष्टता का सुन्दर ख्याल आ जायेगा।
उपयोग (१) "अन्तोमुत्तमित्तं चित्तावत्थाणमेग- (१) 'उवओगंतमुहुत्तं' वत्थुम्मि।"
उपयोग का उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त एक ही वस्तु में अन्तर्मुहूर्त काल तक है । (विशेषा०; गाथा २७६३) चित्त का अवस्थान ध्यान है।
. (समवायांगसूत्र) (२) "ध्यानं चैकाग्रसंवित्तिः ।"
(२) उपयोग ज्ञान और दर्शन स्वएकाग्रज्ञान अर्थात् ज्ञान की एकाग्रता रूप है। ही ध्यान है।
(ज्ञानसार) (अ) ज्ञपरिज्ञा, (ब) प्रत्याख्यान ध्यान की विविध व्याख्याएँ परिज्ञा ।
समस्त इन्द्रियों को भ्र मध्य आदि (अ) ज्ञपरिज्ञा आत्मज्ञान स्वरूप है। स्थानों में केन्द्रित करके जो चिन्तन किया
(ब) प्रत्याख्यान परिज्ञा आत्मानुभूति जाता है उसे भी ध्यान कहते हैं।
स्वरूप है।
भाव निक्षेप के दो प्रकारश्रुत ज्ञान को भी "शुभ ध्यान"
(अ) आगम (ब) नोआगम कहा है। चिन्ता और भावनापूर्वक स्थिर
(अ) आगम से भाव निक्षेप अर्थात् अध्यवसाय को भी ध्यान माना है।
ज्ञानोपयोग वाली आत्मा। - निराकार-निश्चल बुद्धि, एक प्रत्यय- (ब) नोआगम से भाव-निक्षेप अर्थात् संतति, सजातीय प्रत्यय की धारा, परि- ज्ञानयुक्त अनुभूति वाली आत्मा । स्पंद-वजित एकाग्र चिन्ता निरोध, आदि भाव निक्षेप के दोनों प्रकारों में ध्यान की अनेक व्याख्या की गई हैं। "उपयोग" अवश्यमेव होता है।
ध्यान अथवा समाधि में भी “एकाग्र प्रथम प्रकार में ज्ञान-उपयोग की उपयोग" को अत्यन्त ही प्रधानता दी प्रधानता है। गई है।
दूसरे प्रकार में उपयोग युक्त अनुभूति ध्याता का ध्येय में एकाग्र उपयोग की प्रधानता है।
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