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सर्वज्ञ कथित : परम सामायिक धर्म जो समापत्ति शब्द, अर्थ और (अ) साकार उपयोग भेदग्राहक है।' ज्ञान के विकल्पों से युक्त होती (ब) निराकार उपयोग अभेदग्राहक है उसे 'सविकल्प अथवा सवि- है। तर्क' समापत्ति कहते हैं। जैनागम दृष्टि से समापत्तिजो शब्द, अर्थ और ज्ञान से जिस पदार्थ का ज्ञाता उसके उपयोग रहित केवल ध्येयाकार (अर्थ) वाला हो तो वह ज्ञाता भी तत्परिणत के रूप में प्रतीत होती हो तो होने से आगम से भाव निक्षेप से “तत्स्ववह निर्विकल्प निर्वितर्क' समा- रूप" कहलाता है । जिस प्रकार नमस्कार पत्ति कहलाती है।
में1 उपयोग वाली आत्मा नमस्कार उपर्युक्त दोनों भेद स्थूल, परिणत होने से “नमस्कार" कहलाती भौतिक पदार्थ-विषयक समा- है। पत्ति के जानें। सूक्ष्म परमाणु मणाविव प्रतिच्छाया आदि विषय वाली समापत्ति समापत्तिः परात्मनः। को ‘सविचार एवं निर्विचार' क्षीणवृत्तौ भवेद ध्यानाद् समापत्ति कहते हैं। इस चारों अन्तरात्मनि निर्मले ॥ (ज्ञान०) प्रकार की समापत्ति को 'संप्र- मणि के समान निर्मल वृत्ति वाली ज्ञात समाधि' भी कहा जा अन्तरात्मा में एकाग्र ध्यान के द्वारा जो सकता है।
परमात्मा का प्रतिबिम्ब पड़ता है वही इस प्रकार जब ज्ञाता का उपयोग समापत्ति है । अथवा अन्तरात्मा में ज्ञेयाकार के रूप में परिणत हो जाता है परमात्मा के गुणों का अभेद आरोप तब वह 'समापत्ति' कहलाता है।
करना "समापत्ति" है । यह अभेद आरोप गुणों के संसर्गारोप से सिद्ध होता है। ____ संसर्गारोप अर्थात् सिद्ध परमात्मा के अनन्त गुणों में अन्तरात्मा का एकाग्र उपयोग, ध्यान अथवा स्थिरता होना (संसर्गारोप चित्त की निर्मलता होने से
ही होता है)। उपयुक्त शास्त्र-पाठों के द्वारा समन्वय दृष्टि से अनुप्रेक्षा करने वाला वाचक सरलतापूर्वक समझ सकता है कि समस्त प्रकार के योगों में चित्त की स्थिरता, एकाग्रता अथवा तन्मयता के रूप में 'उपयोग' अवश्य होता है।
१ नमोक्कार परिणओ जो तओ नमोक्कारो।
-विशेषावश्यक, गाथा २६३२
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